सल्लेखना' को 'मारणान्तिकी-क्रिया' मत बनाइये* (प्रासंगिक-मननीय-आलेखमाला) (चौथी-किस्त)

 *'सल्लेखना' को 'मारणान्तिकी-क्रिया' मत बनाइये*

(प्रासंगिक-मननीय-आलेखमाला)
  (चौथी-किस्त)
✍🏻 *प्रो. सुदीप कुमार जैन लक, नई दिल्ली*

    [समसामयिक-परिस्थितियों में यह बहुत-उपयोगी एवं ज्ञातव्य विषय है। क्योंकि कोविड से संक्रमित हो चुके या इसके परिवेश में रहने से उस वातावरण के प्रभाव से प्रायः अधिकांशजनों की रोग-प्रतिरोधक-क्षमता एवं शारीरिक-क्षमता न्यूनाधिकरूप में प्रभावित हुई ही है। इसलिये बदलता-मौसम, वार्धक्य/बुढ़ापा या खानपान एवं जीवनशैली के असंतुलन आदि कारणों से शारीरिक-अक्षमता के शिकार बन रहे लोगों में चिकित्सकों की शरणागति विवशता बनती जा रही है। तत्त्वज्ञान की कमी के कारण जीवटता भी घट रही है। जैन-जीवनशैली को 'रूढिवादी लोगों की बातें' कहकर उपेक्षित किया जा रहा है।-- इस विषमताओं में हम क्या करें और कैसे सहज रहकर जियें?-- यह एक यक्ष-प्रश्न बनकर उभरा है। इसके समुचित एवं वैज्ञानिक समाधान की दृष्टि से यह आलेख आपके मध्य प्रेषित है।]

      पिछली तीन-किस्तों में आपने पढ़ा कि सल्लेखना की साधना में सल्लेखना को मात्र मरण की प्रक्रिया नहीं बनाया जाये, सल्लेखना स्वयं ली जाये न कि अन्य लोग दिलायें, और सल्लेखना के समय सम्बोधित करना-- इन तीन विषयों को तीन-किस्तों में प्रेषित किया जा चुका है।

    इस आलेख में अब मैं यह स्पष्ट करनेवाला हूँ कि *सल्लेखना की साधना के समय हमें सल्लेखना ग्रहण करने वाले क्षपक की सल्लेखना की साधना निर्विघ्न सम्पन्न हो सके-- इस दृष्टि से कैसा व्यवहार करना चाहिये और किसतरह से उसकी वैय्यावृत्ति करनी चाहिये?*

*4. सल्लेखना की स्थिति में गृहस्थ-क्षपक की वैय्यावृत्ति की व्यावहारिक-विधियों को पहिचानिये:--*
    यह बहुत संवेदनशील-विषय है। क्योंकि वर्तमान के गृहस्थों में इस विषय में विवेक शायद ही किसी के जीवन में अवशिष्ट बचा है। *आज भी वैय्यावृत्ति की भावना अधिकांश-जनों के मन में है और वे उसे यथाशक्ति व यथामति करने के लिये तत्पर भी रहते हैं-- यह सत्य है। किन्तु सल्लेखना के साधक क्षपक की वैय्यावृत्ति किस स्थिति में किसतरह से की जानी चाहिये-- यह विवेक प्रायः लुप्त हो चुका है।* इसीलिये इस विषय पर अत्यधिक-सावधानी से स्पष्ट-चर्चा की जानी अपेक्षित है।

      सर्वप्रथम तो यह स्पष्टीकरण आवश्यक है कि *यहाँ प्रकरण श्रावकों का है, श्रमणों का नहीं। अतः अविरति एवं सदाचारी-श्रावकों में से जो कोई सल्लेखना की लोकोत्तर-साधना का साधक बनता है, तो उसकी उस स्थिति में वैय्यावृत्ति कैसे की जाये?-- इसका विवेचन ही यहाँ मुख्य-लक्ष्य है।*
        *गृहत्यागी-व्रतियों एवं महाव्रती-श्रमणों की वैय्यावृत्ति-तप के अन्तर्गत आती है, जबकि अविरति-सदाचारी-गृहस्थों की वैय्यावृत्ति 'तप' न होकर नैतिक-कर्त्तव्य एवं सामाजिक-दायित्व के अन्तर्गत परिभाषित होती है।*

      इसके साथ ही *यह एक जीवन की अपरिहार्यता भी है, जो सबको परस्पर निभानी होगी, अन्यथा पारस्परिक-सद्भाव एवं धार्मिक-सदाचरणों का निर्वाह ही दुष्कर हो जायेगा। क्योंकि यदि हम अपनी पिछली-पीढ़ी के प्रति यह दायित्व नहीं निभायेंगे, तो जब हमारी ऐसी अवस्था होगी, तब हमारे साथ यह दायित्व कौन निभायेगा? यह केवल हमारी वैयक्तिक-हानि नहीं होगी, बल्कि एक चिरन्तन एवं जीवनोपयोगी-परम्परा का लोप करने के दोषी भी हम होंगे। क्योंकि यदि हम अज्ञान, प्रमाद, लोभ या उपेक्षा-- किसी भी कारण से इसका निर्वाह नहीं करेंगे, तो आगामी-पीढ़ी में इसके परिचय एवं संस्कारों का लोप होना अत्यन्त-स्वाभाविक है।*
      *अतः हमें सल्लेखना के साधक क्षपकों की वैय्यावृत्ति का स्वरूप, विधि एवं महत्त्व समझना भी होगा और इसका अनुपालन भी अपने जीवन का अनिवार्य-अंग बनाना होगा।*
      क्योंकि पहले तो संयुक्त-परिवारों में लोग रहते थे और वे सभी प्रायः अपने पैतृक-निवास एवं पैतृक-व्यवसाय में संलग्न रहकर ही जीवनयापन करते थे। किन्तु आज की परिणतियाँ पूर्णतः भिन्न हैं। आज वैश्विक-फलक पर हम अपने व अपने बच्चों के उज्जवल-भविष्य के लिये संभावनायें तलाशते हैं और उनकी पूर्ति के लिये प्राणपण से प्रयत्न करते हैं। इसीलिये आज सबकी क्षेत्रीय-दूरियाँ तो बनी ही हैं, साथ ही व्यावसायिक-व्यस्ततायें भी इतनी बढ़ गयीं हैं कि हम अपने सगे माता-पिता एवं बुजुर्गों की ढंग से देखभाल तक नहीं कर पा रहे हैं। जो लोग अहर्निश नित्य-सम्पर्क एवं संवेदनाओं के विषय होते थे, आज वे ही फादर्स-डे, मदर्स-डे, पेरेंट्स-डे में औपचारिक-स्मरण (मैसेज, फोनकॉल्स आदि) के योग्य रह गये हैं। बहुत हुआ तो मिलकर हालचाल पूछ लिया या कोई गिफ्ट आदि ऑनलाइन भिजवा दी।
      *इन शुष्क-औपचारिकताओं में पारस्परिक-संबंधों की सुगंध तक नहीं बची है, तो वैय्यावृत्ति जैसी समर्पित-भावना की संभावना भी कैसे मानी जा सकती है? अतः इस विषय पर गम्भीरता से विचार-विमर्श करना अपेक्षित तो है ही, वर्तमान-सन्दर्भों में अनिवार्य हो चुका है।*

        वैय्यावृत्ति के तीन-प्रारूपों में वर्गीकृत रूप से हमें विचार करना होगा। *पहला-प्रारूप* उस क्षपक की दैहिक-सेवा करना है। *दूसरा-प्रारूप* उस क्षपक की औषधि-उपचार की विवेकपूर्ण-व्यवस्था करना है। और *तीसरा-प्रारूप* उनकी आध्यात्मिक-भावभूमि को समुन्नत बनाये रखने के लिये उनसे चर्चा करना, पाठ सुनाना एवं सम्बोधित करना है। इन तीनों प्रारूपों का सविस्तार-स्पष्टीकरण निम्नानुसार प्रस्तुत है--

    *प्रथम-प्रारूप : दैहिक-सेवा--* यह कई रूपों में की जानी चाहिये। इसका पहला-रूप है क्षपक को वायु-प्रकोप आदि के कारण होनेवाली दैहिक-पीड़ा के उपशमन के लिये किये जानेवाले हाथ-पैर दबाना, मालिश करना, एक्युप्रेशर करना आदि। यद्यपि यह सामान्य-सेवाकार्य है, तथापि इसमें विवेकपूर्ण-सावधानी की अनिवार्यता होती है। उदाहरण के तौर पर क्षपक की शारीरिक स्थिति एवं सहनशक्ति भिन्न-स्तर की होती है, जबकि क्षपक की बिल्कुल-भिन्न होती है। अतः वैय्यावृत्ति करनेवालों को अपनी शारीरिक-क्षमता एवं उत्साह के अनुसार वैय्यावृत्ति न करके क्षपक की शारीरिक-क्षमता को गम्भीरता से विचार करके ही शारीरिक-उपचाररूप वैय्यावृत्ति करनी चाहिये।
    *इसी के अन्तर्गत बीमारी, प्रतिक्रिया (री-एक्शन) आदि के कारण होनेवाली वमन (उल्टी), दस्त (डायरिया), कब्ज (कॉन्स्टीपेशन), दौरे पड़ना, ऊटपटांग-बड़बड़ाना आदि अनेकों प्रकार की विषम-स्थितियों में हमें ही उस क्षपक की पूरी नर्सिंग शांतभाव से बिना विचलित हुये करनी होगी। यह कहना आसान है, किन्तु करना उतना सहज नहीं है। हमें मल-मूत्र, वमन आदि की सफाई करना, कपड़े बदलवाना, शारीरिक-सफाई करना-- इत्यादि कार्यों का अभ्यास नहीं है। दूसरों का तो दूर, अपने भी इन विकारों की सफाई करने का सहज-अभ्यास नहीं रह गया है। तब दूसरों की सफाई व सेवा बिना किसी हिचक व जुगुप्सा के हम कैसे कर सकते हैं? और जब हम दूसरों के ये काम नहीं कर सकते हैं, तो जब बीमारी या वृद्धावस्था के प्रकोप के कारण हमारी अपनी ऐसी अवस्था होगी, तो कोई हमारी वैय्यावृत्ति कैसे कर सकते हैं?*
      *अतः जुगुप्सा जैसी मनोवृत्तियों को संयमित किये बिना एवं शरीर की स्वाभाविक अशुचिता की वास्तविकता जाने बिना कोई भी व्यक्ति किसी के दैहिक-विकारों/मलों की सफाई आदि करते हुये उसकी शारीरिक-वैय्यावृत्ति नहीं कर सकता है।*
      *इसके साथ ही उसे सेवाभाव की महिमा का भी बोध होना आवश्यक है। अन्यथा सेवाभाव की महिमा जाने बिना भी कोई व्यक्ति किसी की इसतरह से सेवा नहीं कर सकता है।*
    वास्तव में हमें समझना होगा कि सेवाभाव क्या है? यह एक सांसारिक-स्वार्थों से ऊपर उठकर करुणाभाव के उत्कर्ष से की जानेवाली प्रक्रिया है, जो मानवीयता के साथ-साथ सह-अस्तित्व का पाठ सिखाती है और हमें *"परस्परोपग्रहो जीवानाम्"* के आदर्श-वाक्य का यथार्थ के धरातल पर अर्थबोध कराती है। अतः *सेवाभावना के बिना किसी क्षपक की वैय्यावृत्ति संभव ही नहीं है।*
    इस विषय में हमें अपने पौराणिक-चरित्रों के घटनाक्रमों को स्मृत करना होगा। *जैसे कि जीवन्धर कुमार ने मरणासन्न-कुत्ते की वैय्यावृत्ति करते हुये उसे 'णमोकार-मंत्र' सुनाकर उसका अंतसमय सुधारा। पार्श्वनाथ स्वामी ने भी कमठ की अग्नि-ज्वाला में दग्ध नाग-नागिन को उनकी देहान्त-बेला में करुणासिक्त-हृदय से 'सम्बोधित करके' उनका भाव-परिवर्तन करके भव सुधारने में निमित्त बने। ये प्राणी तो तिर्यंचगति के थे, मनुष्य ही नहीं थे, तो सल्लेखना के साधक कैसे होते? परन्तु करुणहृदय-महानुभावों के द्वारा उनके अन्तसमय में की गयी वैय्यावृत्ति ने उनकी जीवनयात्रा की दिशा ही बदलकर रख दी थी। उनके करुण-स्पर्श ने मानो उन जीवों के भावों को इसतरह संबल प्रदान किया कि उन भवभ्रमण की गाथा ही बदल गयी थी और वे अनन्त-संसारी से अल्प-संसारी बनकर मोक्षमार्गी बन गये थे। देहान्त-बेला में करुणभाव से की गयी सच्ची-वैय्यावृत्ति का सुफल हमें इन घटनाक्रमों से सुस्पष्ट है।*
      *इसी के साथ-साथ यदि वैय्यावृत्ति करनेवाले को दबाब-चिकित्सा (एक्युप्रेशर) के कुछ प्रयोग ज्ञात हों, तो रात्रि के समय जब औषधि आदि का सेवन नहीं करना हो, तब भी एवं अन्य-समयों में भी इनके ज्ञान का सदुपयोग करते हुये उन बिन्दुओं को हल्के हाथ से यथायोग्य-रीति से दबाकर उसके कई शारीरिक-कष्टों को दूर कर सकता है या कष्ट कम कर सकता है। अतः सल्लेखना के क्षपकों की साधना में इस प्रविधि से की गयी वैय्यावृत्ति भी बहुत-प्रभावी सिद्ध होती है और यह निर्दोष एवं अनुकरणीय-प्रविधि है। किन्तु इसका प्रयोग उन बिन्दुओं को भलीभाँति समझने के बाद योग्य-प्रशिक्षक से प्रशिक्षित व्यक्ति को ही करना चाहिये, ताकि कोई विपरीत-परिणाम नहीं हो सके।*

*द्वितीय-प्रारूप : औषधि-उपचार:--*
    इसके अन्तर्गत भी दो तरह की प्रविधियाँ अपनानी होंगीं। *पहली-प्रविधि* के अन्तर्गत हमें स्वयं अपने जीवन से मिली शिक्षाओं एवं जानकारियों का विवेकपूर्ण-सदुपयोग करना होगा।
      जैसे कि कफ़ के प्रकोप की स्थिति में भाप देना (स्टीम इनहेलेशन), थोड़ी थोड़ी देर में पीने योग्य गर्म-पानी पिलाना चाहिये। खाँसी व जुकाम/नज़ला आदि की ज्यादा परेशानी होने पर श्यामा-तुलसी के सूखे-पत्तों (8-10), मुलैठी (लगभग 20ग्राम कूटकर डालें), दालचीनी (5 ग्राम), कालीमिर्च (4-5) एवं छोटी-इलायची(एक) का क्वाथ (काढ़ा) बनाकर पिलाना व अच्छे गर्म-पानी से मात्र कुल्ला करवाना, ताकि मुँह जूठा न रहे। यदि खाँसी के साथ पित्त का भी प्रकोप हो, तो मात्र मुलैठी एवं कालीमिर्च का ही काढ़ा बनाकर दें। इन काढ़ों में दूध या चीनी का बिल्कुल भी उपयोग न करें। अर्थात् इन्हें उकाली न बनायें, काढ़ा ही रहने दें।
      इसीतरह ज्वर (बुखार) की स्थिति में मात्र श्यामा-तुलसी के सूखे-पत्तों (ध्यान रहे कि श्यामा-तुलसी के पत्तों को छाया में सुखाकर रखा जाता है, धूप में सुखाने पर इसके तत्त्व कम हो जाते हैं) व काली-मिर्च का काढ़ा बनाकर दिया जाता है।
      *इसीप्रकार रक्तचाप कम या ज्यादा होने पर सबसे सुरक्षित एवं प्रभावी-प्रक्रिया तो एक्युप्रेशर की होती है, किन्तु प्रारंभिक-उपचार के रूप में उष्ण-जल का सेवन कराना, शुगर-लेबल कम होने पर आवश्यक रस/भोजन आदि मर्यादा के साथ देना तथा मनोबल उन्नत बनाये रखने के लिये आत्मिक-पवित्रता एवं परिपूर्णता की चर्चा करना सर्वाधिक-उत्तम पद्धति है। यह इसकी अमोघ-औषधि है।*
      *वमन या दस्त होने पर छना हुआ प्रासुक-पानी में खांड/गुड़ के साथ सेंधा-नमक थोड़ा-सा मिलाकर लगातार थोड़ा-थोड़ा पिलाना चाहिये। साथ ही इसके एक्युप्रेशर के बिन्दुओं पर प्रेशर/दबाना चाहिये।*
      *गला खराब होने की स्थिति में गर्म-पानी के गरारे कराना, यदि यह संभव नहीं हो, तो गर्म-पानी पिलाना सबसे प्राथमिक उपचार है। गर्म-पानी में हल्दी एवं थोड़ी-सी फिटकरी डालकर गरारे करने से और अधिक प्रभाव पड़ता है।*
    *एक और विषम-स्थिति प्रायः बुढ़ापे या देहान्त-बेला निकट होने पर कुछ लोगों के साथ बनती है, वह है कि कई अनुपलब्ध-व्यक्तियों को दिखाई देने, उनसे बातचीत करने की असंगत-बातें करना या अनावश्यक-जिद करते हुये अनुचित-आग्रह करना अथवा उनके अनुचित-आग्रह न माननेवालों पर उग्रतापूर्ण-व्यवहार करना आदि जैसी अप्रत्याशित-व्यवहार करने की परिस्थितियाँ बनतीं हैं, तब हम सेवा करनेवाले भी थोड़ी देर के लिये विचलित हो जाते हैं कि क्या करें? ऐसी स्थिति में सबसे पहले विशेषज्ञ चिकित्सक के द्वारा जाँच करवाकर कन्फर्म करिये कि उनके मस्तिष्क में सोडियम या ऐसे किसी तत्त्व की कमी या अधिकता तो नहीं हो गयी है, जिसके कारण वह ऐसा व्यवहार कर रहे हैं? इन तत्त्वों की पूर्ति के लिये ऐलोपैथी-चिकित्सा-पद्धति एवं आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में कुछ सात्त्विक-उपचार हैं, उनके सेवन से उन तत्त्वों का संतुलन होते ही वह ऐसे अप्रत्याशित व्यवहार करना बंद कर सामान्य हो जाते हैं। इसका सावधानी से ध्यान रखते हुये प्रयोग करना चाहिये।*
      *कई रूढ़िवादी एवं नादान-लोग ऐसे व्यवहार को व्यन्तर-बाधा आदि के रूप में बताकर झाड़-फूँक एनं टोने-टोटके करवाने लगते हैं। इनसे गृहीत-मिथ्यात्व की पुष्टि होने से तीव्र मिथ्यात्व का बंध भी होता है और समस्या में भी कोई सुधार नहीं हो पाता है, बल्कि नुकसान ही होता है। साथ ही क्षपक की सल्लेखना भी बाधित/खंडित हो जाती है। अतः ऐसी स्थिति में विवेक पूर्वक कार्य करना आवश्यक है।*
    [इसीप्रकार इस अवस्था में संभावित प्रमुख-स्वास्थ्यगत-समस्याओं और उनके सात्त्विक-औषधि-उपचारों के बारे में मेरी सल्लेखना-संबंधी-पुस्तक में अलग से एक अध्याय दिया जायेगा, जिनसे समाजजन सल्लेखना के क्षपक की अपेक्षित औषधि-उपचार के विषय में अच्छी तरह से जान सकेंगे। यहाँ विस्तारभय से इसे सांकेतिकरूप में लिखकर सीमित कर रहा हूँ।]

*'तीसरा-प्रारूप' उनकी आध्यात्मिक-भावभूमि को समुन्नत बनाये रखने के लिये उनसे चर्चा करना, पाठ सुनाना एवं सम्बोधित करना:--*
      यह स्वाभाविक है कि जब देह-परिवर्तन की स्थिति आसन्न हो, तब भले ही 'पड़ोसी' माना जाये, किन्तु लोक में पड़ोसी के वियोग होने पर कुछ तो मानसिक व शारीरिक प्रतिक्रिया होती ही है; इसीप्रकार उस क्षपक के मन में भी देहवियोग आसन्न जानकर कुछ मानसिक-प्रतिक्रिया होनी सहज ही है। उस मनःस्थिति को संतुलित करने के लिये क्षपक को विवेकी होने पर भी परिणामों की विशुद्धि एवं मनोबल की दृढ़ता के लिये तत्त्वचर्चा एवं संबोधन का महत्त्व रहता ही है।
      *जैसे कोई डॉक्टर अपनी सर्जरी स्वयं नहीं कर सकता है, उसे दूसरे डॉक्टर की अपेक्षा होती ही है, इसीप्रकार कोई विवेकी-साधक दूसरों की सल्लेखना की साधना में सहयोगी हो, उसे संबोधन करे व उसके परिणामों में दृढ़ता प्रदान करने में सक्षम हो; तथापि स्वयं उसकी सल्लेखना-साधना में अन्य-विवेकीजनों द्वारा संबोधित किया जाना उसके लिये अपेक्षित होता है।*
      यह एक अद्भुत मनोवैज्ञानिक-प्रक्रिया है, जो सुनिश्चित-प्रभाव उत्पन्न करती है। *जैसे माँ की लोरी बच्चे को हरतरह के भय व चिंता से मुक्त करके निश्चिंत बनाती है, उसीप्रकार सल्लेखना के क्षपक के लिये आत्महितकारी-संबोधन मृत्यु का भय/चिंता, परिजनों का मोह एवं शारीरिक-कष्टों की वेदना को मिटाकर शांतचित्त एवं निश्चिंत बनाता है।*
      जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ कि *सल्लेखना के क्षपक को मात्र संबोधन के नाम पर सुनाना नहीं होता है, बल्कि उसकी उस संबोधन के प्रति एकाग्रता परखनी भी होती है। इसलिये बीच-बीच में उस क्षपक से उस विषय में पूछना भी चाहिये। चाहे वह बोलकर बताये और चाहे संकेत से उत्तर दे। ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि आपकी संबोधित करने की क्रिया मात्र औपचारिकता नहीं है, बल्कि वह सहीरूप में प्रतिफलित हो रही है।*
      *धरती-माँ की गोद में अंतिम-संस्तर पर लेटे/बैठे हुये क्षपक को जिनवाणी-माँ के वचन अपार-धैर्य प्रदान करते हैं। इसलिये जब क्षपक को सम्बोधित करने या पाठ सुनाने का उपक्रम चले, तो वहाँ उसके आसपास वे ही लोग बैठें, जो उन पाठों/सम्बोधनों के प्रति अपनी विनय/बहुमान शांति से या मद्धिम-स्वर में दुहराकर उनकी अनुमोदना कर सकें। क्षपक के निकट उस कक्ष में बैठनेवाले लोगों को खाने-पीने की चीजें सर्व करना, या लौकिक-शिष्टाचार निभाने जैसे कोई भी कार्य नहीं किये जाने चाहिये। न ही वहाँ बैठकर कोई सांसारिक/राजनीतिक/सामाजिक-चर्चायें करे, न ही उनके स्वास्थ्य के बारे में कुशलक्षेम पूछे और न ही कब, कैसे, क्या हुआ? क्या इलाज कराया/करा रहे हैं?-- यह पूछे और न ही इलाज-संबंधित कोई सुझाव आदि की चर्चा वहाँ करे। कहने का अभिप्राय यही है कि क्षपक के पास उनकी वैय्यावृत्ति के अन्तर्गत जो क्रियायें विवेकपूर्वक की जा रहीं हैं, उन्हें उनके विशेषज्ञ-व्यक्ति पूरी-सावधानी से करें।*
      *पाठ सुनाने या सम्बोधन करनेवाले व्यक्ति अपने विवेक से वह कार्य करें। शेष व्यक्ति यदि मात्र औपचारिकतावश या शिष्टाचारवश आये हैं, तो शांतभाव से बैठें एवं सल्लेखना की विधि एवं परिणामों का प्रशिक्षण प्राप्त करें।*
    *यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि सल्लेखना के क्षपक के कक्ष में अधिक लोग न बैठें, क्योंकि क्षपक को ताजी-हवा/ऑक्सीजन पर्याप्त चाहिये। अधिक लोगों के बैठने से ऑक्सीजन की कमी एवं कार्बनडाई-ऑक्साइड की अधिकता होती है, जो उस क्षपक के स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है।*
    *ध्यान रहे कि क्षपक का वह कक्ष पर्याप्त हवादार हो, उसमें हवा को आने-जाने के/क्रॉसवेंटिलेशन के लिये खिड़कियाँ व रोशनदान हों, ताकि ऑक्सीजन की कमी न हो सके। साथ ही यह भी ध्यान रखा जाये कि उस कक्ष का आकार सामान्य-कक्षों से बड़ा हो, ताकि अन्य लोग आकर बैठें, सम्बोधित करें, वैय्यावृत्ति करें; तो भी कोई असुविधा न हो।*
    *इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान रखा जाये कि आगन्तुकों के हाथ-पैर धुले हों और उनके वस्त्र संक्रमण से रहित हों। अन्यथा दूसरों के द्वारा उस नाज़ुक-अवस्था में क्षपक के संक्रमित होने की आशंका अधिक होती है। यह सब आगन्तुकों को तो विवेकपूर्वक ध्यान रखना ही चाहिये, साथ ही जो क्षपक की देखभाल में जिम्मेदारी के साथ संलग्न हैं, उन्हें भी इस बात की सावधानी रखनी चाहिये कि वे आगन्तुकों के प्रति सावधानी रखें और जरूरी-उपचार करके संक्रमण-रहित करके ही किसी आगन्तुक को क्षपक के कक्ष में आने दें। अन्य जो व्यक्ति मात्र औपचारिकतावश आते हैं, उन्हें अलग-कक्ष में ही बिठाया जाये। यदि संभव हो, और क्षपक के कक्ष में कोई बड़ा शीशे का पारदर्शी-दरवाजा या खिड़की हो, तो उससे वे आगन्तुक क्षपक के कक्ष की गतिविधियों को देख सकते हैं। या फिर आधुनिक संसाधनों के द्वारा उस आगन्तुक-कक्ष में cctv की स्क्रीन/टीवी लगाकर उन्हें वे गतिविधियाँ दिखाई जा सकती हैं। किन्तु सबको क्षपक के कक्ष में जाने की अनुमति कदापि नहीं दी जानी चाहिये।*
      *साथ ही यह भी पूरी-सावधानी से ध्यान रखा जाना चाहिये कि कोई भी व्यक्ति सांसारिक-मोह-ममत्व बढ़ानेवाली या राग-द्वेष की चर्चायें उसके आसपास के कक्षों में भी न करे। न ही शरीर, परिजनों, बेटे-बेटियों, बहुओं, नाती-पोतों के बारे में किसी भी तरह की चर्चा वहाँ करे। पूरीतरह से आध्यात्मिक एवं वैराग्यपरक वातावरण क्षपक के आसपास बनाना चाहिये। ताकि उसकी सल्लेखना-साधना में कोई विघ्न-बाधा संभावित नहीं हो सके।*
____________________________ *अतिरिक्त-समसामयिक-परिस्थितियों की सूचनायें:--*
      *आजकल की चिकित्सा-पद्धति में खून, मल-मूत्रादि की वैज्ञानिक पद्धति से जाँचें कराना, एक्सरे/अल्ट्रासाउंड आदि कराना, ब्लडप्रेशर नापना, ऑक्सीमीटर के द्वारा ऑक्सीजन-लेबल या पल्सरेट चैक करना आदि सल्लेखना की प्रक्रिया से विरोध नहीं रखते हैं। अतः ये कार्य आवश्यकतानुसार कराये जा सकते हैं। ऑक्सीजन की अनिवार्यता लगे, तो लगायी जा सकती है, उसमें भी कोई आपत्ति नहीं है।*
      *यदि क्षपक किसी कारणवश मुख से (ओरली) कुछ ग्रहण करने में असमर्थ हो और शारीरिक-लक्षण देहान्त की अनिवार्यता को सूचित नहीं कर रहे हों, तो ग्लुकोज आदि की सात्त्विक-उपचार-विधियों का पालन किया जा सकता है। इसीप्रकार कॉन्स्पेटीशन/कब्ज की स्थिति में अन्य उपचारों के अतिरिक्त एनीमा देने में कोई बाधा नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि मुनिधर्म की सल्लेखना-साधना में भी इसका प्रावधान मिलता है।
      ध्यान रहे कि यह इस शीर्षक के अन्तर्गत आनेवाला-विवेचन अविरति-गृहस्थों की सल्लेखना की साधना की दृष्टि से किया जा रहा है। इसे व्रती-साधकों के लिये आदर्श नहीं माना जाना चाहिये। उनके विषय में अलग से विवेचन किया जायेगा।*

(आगे के वर्ण्यविषयों का विश्लेषण आगामी-किस्तों में किया जायेगा।)
[क्रमशः, आगे जारी]
संपर्क दूरभाष : 8750332266
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