अंतस् तिमिर को हर सके, वह दीप ज्योतित तुम करो* (मार्मिक हिन्दी-कविता)

 *अंतस् तिमिर को हर सके, वह दीप ज्योतित तुम करो*

(मार्मिक हिन्दी-कविता)
   *प्रो सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली*

*दीपावली शुभ-पर्व के दिन,*
        *जब दीप ज्योतित हों धरा पर।*
*करते हों अंधेरा दूर जग का,*
       *शत-शत दीप जले हैं ठौर पर।।* 
*किन्तु मन में घिरा है जो तिमिर,*
       *क्यों नहिं तुम मन का तम हरो?* 
*अंतस् तिमिर को हर सके जो,*
      *प्रिय! वह दीप तुम ज्योतित करो।।1।।*

*जगत् के झंझावातों में तुम्हारे,* 
       *दीप की लौ है जब फुरफुराती।* 
*नित निरन्तर तैल पीकर भी,*
       *जो फिर भी बाती को जलाती।।*
*निर्वात-दीपक बन जाओ तुुम,*
      *तैल अरु बाती-बिना ही तुम जलो।* 
*अंतस् तिमिर को दूर करके प्रिय!*
       *निज-ज्ञान-दीपक खुद तुम बनो।। 2।।*

*दीप से जब नवदीप की लौ,*
      *जल सके तब होगी दीपावली।* 
*हर बार नयी ज्वाला अपेक्षित,* 
      *तो निरर्थक वह विधि तुम्हारी।।*
*क्योंकि इस तिथि के नायकों ने,*
     *यही विधि अपनायी थी निरन्तर।* 
*उसी के शुभ-अनुसरण-कर्त्ता,*
    *अरे! भवि अविलम्ब ही तुम बनो।।3।।*

*हर विषय के ज्ञान के हित,*
      *यदि नयी-चेष्टा हो अपेक्षित।* 
*तब तो वृथा है ज्ञान-साधन,*
      *ज्ञेय की गुलामी में जो रत।।* 
*वह ज्ञान-ज्योति जला मन में,*
       *जो ज्ञेय की लिप्सा ही मिटा दे।* 
*निज-ज्ञेय की ज्ञाता बने जो,* 
      *हे सम्यग्ज्ञान-दीपक तुम बनो।।4।।*

*अंतस् तिमिर को वही हरेगा,* 
      *उसी लौ को भवि! प्रज्वल तुम करो।।* 
*अंतस् तिमिर को हर सके जो,*
      *प्रिय! वह दीप तुम ज्योतित करो।।*
*इस विधि मंगल-दीपावली के,*
     *प्रदीप्त-दीपक प्रियवर! तुम बनो।*
*अरु चलो उस मार्ग पर तुम,*
     *तुम्हारी दीपावली तुम खुद चुनो।।5।।
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