। वाक्-संयम का महत्त्व।।* (मननीय आलेखमाला) {पहली-किस्त}

 *।। वाक्-संयम का महत्त्व।।*

          (मननीय आलेखमाला)
                {पहली-किस्त}
     ✍🏻 *प्रो. सुदीप कुमार जैन. नई दिल्ली*

       यह विषय वैसे तो सभी विवेकी-जनों के लिये सुपरिचित होने से 'अनावश्यक' एवं 'परोपदेशे-पांडित्यम्' जैसा प्रतीत हो रहा होगा। क्योंकि *वाक्-संयम का महत्त्व तो लेखन आदि के रूप में भी समान्तररूप से ही है। अतः लेखकों को भी वाक्-संयम का महत्त्व बताना उतना ही अपेक्षित है, जितना वक्ताओं और व्याख्यानकारों के लिये। यदि इस कथन को किसी समर्थन की अपेक्षा प्रतीत होती हो, तो लिखित-साहित्य के लिये प्रयुक्त होने वाले 'वाङ्मय' शब्द में भी मूल-शब्द 'वाक्' ही है, जो कि वचनात्मक-प्रयोगों में प्रयुक्त होता है। इसी कारण मैंने इस आलेख में 'वाक्' के वचनात्मक एवं लिखित --दोनों प्रारूपों को सोद्देश्य सम्मिलित किया है।*
        इस आलेख की परिधि में 'वाक्' के ये दोनों प्रारूप (लिखित एवं वाचिक) सम्मिलित होते हुये भी हर व्यक्ति और हरतरह की कृति को सम्मिलित नहीं किया गया है ; क्योंकि लोक में सामान्यतः सदा से हरतरह के 'वाक्' का प्रयोग हरतरह के प्रारूपों में मिलता रहा है और उनकी लोक-मान्यता भी बनी हुई है।
      लोक में प्रचलित कहावत है कि यदि आप किसी को कहें "चौबे जी!", तो उत्तर मिलेगा "हाँ जी"; और यदि आप उसी को बुलायें "ओ चौबे!", तो उत्तर मिलेगा "हाँ बे!"
     अभिप्राय स्पष्ट है कि *आपके वचन ही आपके राजदूत बनकर आपके व्यक्तित्व का परिचय लोक को देते हैं और लोक को भी आपके प्रति तदनुसार ही व्यवहार करने को प्रेरित करते हैं।*
         *अतः वाचिक-शालीनता ही आपकी मनःस्थिति की गरिमा का परिचय देती है और वाचिक-अभद्रता ही आपकी निकृष्ट-मानसिकता की चुगली कर देती है।*
       
       किसी नीतिकार ने कहा है कि--
     *"कुलप्रसूतस्य न पाणिपद्मम्,*
     *न जार-जातस्य शिरसि विषाणम्।*
     *यदा-यदा मुञ्चति वाक्य-बाणम्,*
      *तदा-तदा जाति-कुल-प्रमाणम्।।"*
      अर्थात् *कुलीन-व्यक्ति कोई हाथ में कमल लिये नहीं घूमता है कि जिसे देखकर उसकी कुलीनता पहिचानी जा सके; और निम्नकुल के व्यक्ति के सिर पर कोई सींग नहीं लगे होते हैं, जिनसे उसके कुल की निकृष्टता जानी जा सके। जब-जब ये बोलते हैं, तो इनके वचनों के स्तर से ही इनती जाति और कुल की पहिचान हो जाती है कि कौन कुलीन है और कौन निकृष्ट-कुल का है?*

      नीतिकार भर्तृहरि लिखते हैं--
*"वाक्शल्यो हि निर्हर्तुं न शक्यः, स हि हृच्छयः।"*
  *अर्थात् (भीषण-बाण का घाव फिर भी भर सकता है), किन्तु मर्मान्तक-वाणी से होनेवाला घाव भरा नहीं जा सकता है, क्योंकि वह तो सीधा हृदय को ही विदीर्ण कर देता है।*

        किन्तु लोक में कुछ वर्ग और विभाग ऐसे भी हैं, जिनमें अपशब्दों का प्रयोग उनकी गुणवत्ता माना जाता है। जैसे कि आरक्षी-विभाग (पुलिस-विभाग) में व अपराधियों में 'गाली' जैसे अपशब्दों का प्रयोग उनकी कार्यशैली का अंग है। नाट्यशास्त्रीय-ग्रन्थों में इन चरित्रों (कैरेक्टर्स) से ऐसे प्रयोगों के बाकायदा प्रावधान तक प्राप्त होते ही हैं, वर्तमान प्रशासनिक-प्रविधि में भी इस बात की स्वीकृति है, जिसे परोक्षरूप में 'प्रावधान' कहा जा सकता है।
       [यही कारण है कि पुलिसकर्मियों को अपने बच्चों से दूर रहने को या घर में कम से कम और सोच-विचारकर बोलने को कहा जाता है, क्योंकि उनके अभ्यस्त-अपशब्दों के कुसंस्कार यदि उनके ही बच्चों पर पड़ गये, तो उनका व्यक्तित्व निकृष्ट मानकर सभ्य-समाज के लोग उन्हें अपने बीच सम्मिलित तक नहीं करेंगे; उन्हें दूर ही रखेंगे।]

         अन्यत्र भी लोक में 'शुभ' कहे जाने वाले विवाह आदि प्रयोगों में भी महिलाओं द्वारा प्रसंग-विशेष के लोकगीतों में 'गालियों' जैसे प्रयोग सामाजिक-मान्यता प्राप्त हैं।

        *काषायिक-उद्वेग आजकल जहाँ सहज प्रतीत होने लगे हैं, उन लोगों में 'असंसदीय' कही जाने वाली भाषा का प्रयोग 'सहज' और 'स्वीकार्य' माना जाने लगा है। इसके लिये 'मनोवैज्ञानिक-प्रतिक्रियायें' कहकर इनकी वैज्ञानिकता एवं व्यावहारिक-उपयोगिता भी आजकल ज्ञापित की जाने लगी है।*

         इसीलिये प्रस्तुत-आलेखमाला में ये सब व्यक्ति और परिस्थितियाँ परिधि से बाहर रखीं गयीं हैं। क्योंकि *सभ्य-समाज में तो उन्हीं वचनों को स्वीकार्य माना जाता है, जो वचन सज्जनों से लेकर अकुलीनों तक को आपके व्यक्तित्व की गरिमा का हठात् अवबोध करा सकें।*--
*"तास्तु वाचः सभा-योग्याः, याश्चित्ताकर्षणक्षमाः।*
*स्वेषां परेषां विदुषां द्विषामविदुषामपि।।"*
       अर्थात् वे ही वचन सभा/धर्मसभा में बोले जाने योग्य हैं, जो जिज्ञासु-श्रोताओं के चित्त को आकर्षित करने में सक्षम हों। चाहे वे श्रोतागण आपके प्रशंसक हों, आपसे विपरीत-विचारधारा के हों, आपके प्रति पूर्वाग्रह-पूर्वक द्वेषभाव रखनेवाले हों अथवा उस विषय से पूरीतरह से अनभिज्ञ हों; तथापि आपकी वाणी इन सभी प्रकार के श्रोताओं के मन को मंत्रमुग्ध करने में सक्षम हो, ताकि वे सभी उन्हें सुनने को विवश हो जायें और उन्हें अपने वचनों से प्रभावित भी कर सकें।
     संत कबीर भी लिखते हैं--
*"ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय।*
*औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय।।"*

       इस आलेखमाला में मात्र उन्हीं उदात्त-मनःस्थितिवाले सज्जनों का परिग्रहण किया गया है, जो ऐसे सभ्य और शिष्ट-वर्ग में आते हैं। क्योंकि इस आलेख की परिधि में मात्र वे ही सुजन समाहित हैं, *जो धार्मिक-पदों पर आरूढ़ हैं और वाक्-संयम जिनकी पद की मर्यादा का अंग जिनवाणी में माना गया है, उन्हीं के लेखन एवं वक्तव्यों को इस आलेख में समीक्षित किया जायेगा; ताकि जिनवाणी के निर्देशों का अनुपालन हो रहा है या नहीं? --- यह समझा जा सके।*
       साथ ही जिनवाणी के इनके लिये प्रदत्त-निर्देशों की सार्थकता की समीक्षा भी तर्क, आगम एवं मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में कई जायेगी।

         सबसे पहले हमें यह समझ लेना होगा कि *जैन-समाज में धार्मिक-पदों पर आरूढ़-लोग लेखन या संबोधन/व्याख्यान में सर्वतंत्र-स्वतंत्र होकर मनमर्जी से वाक्-प्रयोग करने के लिये अधिकृत नहीं हैं। जिनवाणीरूपी-संविधान की मर्यादा में मर्यादित रहते हुये अपने पद की गरिमा के अनुरूप ही वाक्-प्रयोग करने की उन्हें अनुमति है। और यदि वे इस मर्यादा में मर्यादित रहने के लिये स्वयं को किसी भी कारणवश सक्षम नहीं पाते हैं, तो उन्हें मौन रहकर धर्मसाधन करने का स्पष्ट-निर्देश है, ऐसा बोलने या लिखने की अनुमति कदापि नहीं है, जो जिनशासन की मर्यादा का अतिक्रमण करता हो।*
         किन्तु *आज हम इसके ठीक-विपरीत धार्मिक-पदों पर आरूढ़-व्यक्तियों के वाक्-प्रयोग देख रहे हैं। और समाज के अधिकांश-लोग मात्र उनके ऐसे वाक्-प्रयोगों को इस मजबूरी में सहन कर रहे हैं कि उन्हें वास्तविक-स्थिति का ज्ञान ही नहीं है। वे इनके विषय में जिनवाणी के निर्देशों और उसके कारणों व परिणामों से अनभिज्ञ हैं, इसीलिये अपने अज्ञान के हाथों विवश होकर इसतरह के अमर्यादित-प्रयोगों को सहन कर रहे हैं।*
         *मैं कुछ अपेक्षाकृत-शालीन, किन्तु जिनागम के निर्देशों का उल्लंघन करनेवाले ऐसे प्रयोगों को आपके समक्ष रख रहा हूँ, जो जिन धार्मिक-पदों पर आरूढ़ लोगों के द्वारा किये गये हैं, उनका नाम-निर्देश तो नहीं कर रहा हूँ; क्योंकि व्यक्तिगत-विद्वेष से मैं यह आलेख नहीं लिख रहा हूँ, बल्कि समाज की जागृति और धार्मिक पदों पर आरूढ़-व्यक्तियों को उनके अमर्यादित वाक्-प्रयोगों के प्रति सचेष्ट/सावधान करने के लिये यह आलेखमाला लिख रहा हूँ।*
        ये कुछ बेहद बिडम्बना-पूर्ण प्रयोग प्रवर्तित हुये हैं, जो जिनाम्नाय के अनुसार नितान्त-अनुचित और अमर्यादित हैं, फिर भी वास्तविकता से अनभिज्ञ जैनसमाज की वर्तमान-सन्तति इनके चकाचौंध वाले आकर्षण में उलझकर मंत्रमुग्ध होकर इनके वाग्जाल में उलझती जा रही है। मैं कुछ बानगियाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ :---

*1.* निर्ग्रन्थ-श्रमण पद पर आरूढ़ कुछ मुनिपदधारक  आजकल अपने वक्तव्यों एवं आयोजनों से बड़ी-प्रसिद्धि अर्जित कर रहे हैं, विशेषरूप से अपनी उत्तेजनापूर्ण वक्तव्य-शैली से।
          किन्तु *मुझे आपत्ति मात्र उत्तेजित होकर जोर-जोर से चीखकर बोलने की ही नहीं है, अपितु मुनिपद के लिये नितान्त-असहनीय "ऐसी-तैसी" जैसे असंसदीय-शब्दावली के प्रयोगों पर भी है।*
          *इतना ही नहीं, कुछ मुनिपदधारक तो ऐसे भी हैं, जो जिन्हें पसंद नहीं करते हैं, उनके प्रति "लातों व जूतों से मुँह कुचलने/मारने" की सार्वजानिक-मंचों से अपने अंधभक्तों को आज्ञा दे रहे हैं।*
       *-- यह निर्ग्रन्थ-मुनिराज की गरिमा को मटियामेट करने की नितान्त-अस्वीकार्य-चेष्टा है। परन्तु आजकल ऐसे वचन कुछ मुनिपद-धारकों के व्याख्यानों के अनिवार्य-अंग बनते जा रहे हैं। वे गृहस्थों के लिये तो ऐसे वचन आमतौर पर बोलते ही हैं, जिन समानधर्मा-मुनिपदधारकों से उनका वैचारिक-मतभेद है, उनके प्रति भी वे इसीतरह की असंसदीय-शब्दावली का निःसंकोचभाव से सार्वजानिक-मंचों पर व्याख्यानों तक में प्रयोग करते हैं और अंधभक्त चुपचाप सुनते हैं।*
       -- यह स्थिति जैनसमाज की विवेकहीनता एवं किंपुरुषता की पराकाष्ठा के रूप में प्रतीत होने लगी है।
        *विचार करिये कि इसके दोषी क्या मात्र बोलनेवाले वक्ता ही हैं या ऐसे जिनवाणी की मर्यादा के विरुद्ध-कार्यों को चुपचाप रहकर मूक-समर्थन देनेवाले अंधभक्त भी समानरूप से इस विकृति के जैनसमाज में प्रसार कराने के दोषी नहीं हैं?*

*2.* जिनवाणी की मर्यादाओं का उल्लंघन तो इनके लिये आम-बात है। मैं प्रत्यक्षदर्शी हूँ, जब बिहार-प्रान्त की प्रसिद्ध-नगरी 'गया' में इन्होंने सार्वजनिक-सभा में यह कहा था कि *"तराजू-बट्टों, गज/मीटर, तालों व बही-खातों, कलम-दवात आदि को पूजना मिथ्यात्व नहीं है। बल्कि जैन तो इन्हें इसलिये पूजते हैं, ताकि इनका अनुचित-प्रयोग उनके द्वारा नहीं हो।"*
        *गृहीत-मिथ्यात्व के पोषण और समर्थन का इससे विरूपित-प्रमाण और क्या हो सकता है?*
        *पहले ही लोग मिथ्यात्व के कुचक्र में फँसे हुये हैं, अन्य लोग भी ऊपर से गृहीत-मिथ्यात्व में उलझाकर उनका दुर्लभ मनुष्यभव बर्बाद करने में लगे हुये हैं। ऊपर से यदि शुद्धाम्नाय के कहे जाने वाले मुनिपदधारक भी यदि ऐसे मिथ्यात्व-पोषक कथन करेंगे, तो समाज में व्याप्त हो रहे गृहीत-मिथ्यात्व से इन्हें कौन बचायेगा?*
       क्योंकि *मुमुक्षु-जगत् के लोग गृहीत-मिथ्यात्व से दूर रहने के प्रति अत्यन्त-सावधान रहते हैं और वे गृहीत-मिथ्यात्व से बचने के प्रतिपादन भी निरन्तर करते रहते हैं।* किन्तु मुमुक्षुओं के कथनों व आचरण को तो आज के इन मुनिपदधारकों के अनुयायी मानते ही नहीं हैं।
       इस स्थिति में *हे शुद्धाम्नायी कहे जाने वाले माननीय मुनिपदधारको! आपकी जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि आप ऐसे वचन कदापि नहीं बोलें।*
         *परन्तु यदि आपको इसकी परवाह यदि नहीं है, तो फिर तो आपके अनुयायियों में मिथ्यात्व का प्रसार होगा ही। और इसकी जिम्मेदारी से आप बच नहीं सकते हैं।*
        *अतः आपसे निवेदन है कि कृपया आप ऐसे मिथ्यात्व-पोषक वचनों के प्रयोग से पूरीतरह परहेज़ करें। क्या आप इसे स्वीकार करके अपने अनुयायियों को मिथ्यात्व के कुचक्र में फँसने से बचाने का संकल्प लेंगे?*

*3.*  आजकल सुबह-सुबह एक मुनिपद-धारक टीवी पर 'प्रवचन' (यह शब्द मैं आजकल की लोकरूढि के कारण प्रयोग कर रहा हूँ, अन्यथा मैं यह भलीभाँति जानता व मानता हूँ कि *'प्रवचन' संज्ञा मात्र तीर्थंकर-परमात्मा की दिव्यध्वनि के लिये ही जिनवाणी में प्रयुक्त हुई है*) देते हुये 'वास्तु' और 'कर्मकांडों' के नाम पर खुलकर जिनवाणी के विरुद्ध बोलते हैं और गृहीत-मिथ्यात्व का बेहिचक-समर्थन करते हैं।
         इतना ही नहीं, उनकी भाषा-शैली एवं भाव-भंगिमा भी मुनिपद की मर्यादा एवं शालीनता के विरुद्ध होती है, जो कि जैन-साधु की गरिमा के अनुरूप कदापि नहीं रहती है।

       किंतु मूढ-समाज के लोग अपने क्षुद्र-स्वार्थों (कि ये महाराज मेरे घर का वास्तु सुधरवाकर मेरी सब समस्याओं का निदान कर देंगे--इत्यादि) के चक्कर में उनके प्रवचनों को टेलीकास्ट कराने के लिये लाखों रुपये खर्च करते हैं। --- इससे बड़ी मूढ़ता और बिडम्बना क्या हो सकती है?

      *इन कल्पित एवं आँखों में धूल झोंकने जैसे तथाकथित चमत्कारों की वास्तविकता से सुपरिचित होते हुये भी मोही-जीव 'किसी का हुआ हो या नहीं, पर मेरा काम तो हो ही जायेगा'-- ऐसी मोहांध-वृत्ति से इनका अनुसरण करते हैं।*
      *जबकि इनकी असलियत यह है कि आप दिन भर में सौ लोगों को मिट्टी भी पुड़िया में भरकर दें, तो सौ में से दस के काम तो उनके भाग्य के अनुसार बनने ही हैं। बस, उन दस लोगों की लिस्ट बनाकर रखिये और अपनी उपलब्धियों के रूप में उन्हें गिनाइये। यह संख्या हर रोज बढ़नी ही है।*

           *यदि कोई व्यक्ति यह कहता हुआ आ जाये, कि "महाराज! जो आपने कहा, मैंने वह सब किया ; फिर भी मेरा काम नहीं बना।" तो निःसंकोच भाव से उससे कह दीजिये कि "तुम्हारी गुरुओं पर श्रद्धा सच्ची नहीं है" या "तुमने शुद्ध-मन से कार्य नहीं किया, इसलिये तुम्हारा काम नहीं होने के दोषी तुम स्वयं हो। यदि मेरी विधि से काम नहीं होना होता, तो इन सबके काम कैसे हो जाते? " --- इसप्रकार इनकी दुकान चलती रहती है।*

        *जी हाँ, यह विशुद्ध-व्यापार है, बल्कि यदि सच कहा जाये तो वैरागी-मुनिवेष की आड़ में यह 'प्रवंचना का धंधा' चलाया जा रहा है। क्योंकि मुनिधर्म वैराग्य की पवित्र-भावना से आत्महित की साधना के लिये अंगीकार किया जाता है, न कि गृहस्थों को उनके सांसारिक-स्वार्थों की पूर्ति करने के नाम पर उनकी श्रद्धा एवं धन-सम्पत्ति को छलपूर्वक लेने के लिये।*
       *यह क्रिया' अपरिग्रह-महाव्रत' का स्पष्ट-उल्लंघन तो है ही, नैतिकता के प्रति भी आपराधिक-कृत्य है; क्योंकि इसकी असलियत वे अच्छी तरह से जानते हैं, फिर भी अपने पद की सामाजिक-प्रतिष्ठा का खुला-दुरुपयोग करते हुये वे अपनी साधना छोड़कर प्रवचन की आड़ में 'प्रवंचना-कर्म' में निरत हैं।*
      यह सही है कि *व्यक्ति तो अपने अशुभ-कर्म के उदय से ठगा जायेगा; किन्तु मुनिधर्म को व समाज की श्रद्धा को तो ये प्रवंचित ही रहे हैं।*
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        *मुनिधर्म में "सद्धर्म-वृद्धि हो" --- इसके अलावा कोई आशीर्वाद नहीं दिया जा सकता है, तथा श्रावक भी मुनिराज से "रत्नत्रय कुशल है?" के अलावा और कुछ नहीं पूछ सकता है। जिनवाणी की जिज्ञासा करे, उस पर कोई रोक नहीं है; किन्तु मुनिराज का स्वास्थ्य, मौसम, प्रवास-कार्यक्रम आदि के विषय में पूछना जिनवाणी में पूरीतरह से निषिद्ध है।*
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        पर श्रावकों को प्रायः तत्त्वज्ञान की बातें पता नहीं हैं, स्वाध्याय, मनन-चिंतन है नहीं ; इसलिये मुनिधर्म की मर्यादा के नितान्त-विरुद्ध 'स्वास्थ्य, आयोजन, प्रवास, टोने-टोटके आदि के बारे में मूढ़तापूर्वक वे मुनिराज से पूछते हैं। और आज के मुनिवर भी तो अपनी कमजोरी/अज्ञानता को छुपाने के लिये अपने आपको 'पंचमकाल का साधु' कहकर स्वयं ही अपने विषय में घोषित करते हैं कि वे जिनधर्म के अनुरूप सच्चे-मुनिधर्म के साधक नहीं हैं। इसीलिये वे श्रावकों से उनकी घर-गृहस्थी की बातें करते हैं, परिवार, बच्चों, लौकिक पढ़ाई, नौकरी व शादी-सम्बन्धों की चर्चा करते हैं।
       *जो बातें मुनिधर्म में पूर्णतः निषिद्ध व 'अनाचार/ कदाचार-रूप' हैं, वे ही आज 'शिष्टाचार' समझी जाने लगीं हैं। --- यह अविवेक की पराकाष्ठा हो रही है।*
*4.* *बहुत बोलने से कम बोलना, कम में भी हित-मित-प्रिय बोलना बेहतर माना गया है। और उससे भी बेहतर है कि यदि बिना बोले 'बोलने से भी श्रेष्ठ-कार्य' किया जा सके, तो मौन रहकर/वचनगुप्ति का पालन कर ध्यानादि करना श्रेष्ठतर है।*
      *'साधु' संज्ञा तो साधना से होती है, बोलने से नहीं।* फिर भी यदि बोलना ही पड़े, तो निर्ग्रन्थ-मुनिराज के वचनों की गरिमा इन शब्दों में मनीषियों ने व्यक्त की है--
*"भ्रम-रोग-हर जिनके वचन, मुख-चन्द्रतैं अमृत झरै।"*
       विचार करिये कि वास्तव में ऐसी वक्तृता के धनी मुनिराज आज कितने उपलब्ध हैं? मनोरंजन करनेवाले तो हैं, साथ ही आवेश में बहानेवाले भी हैं; किन्तु *वास्तव में भविजनों के आत्मविभ्रम को दूर करके उनके जीवन को आप्यायित करनेवाले वचन-सामर्थ्य के धनी करुणामूर्ति निर्ग्रन्थ-मुनिराज आज कहाँ उपलब्ध हैं? जो वचन-सामर्थ्य एवं पुण्य के धनी कदाचित् हैं भी, तो वे सच्चे आत्महित की जगह जब सीधे या प्रकारान्तर से गृहीत-मिथ्यात्व के पोषक-वचन बोलते सार्वजनिक-मंचों पर दिखाई देते हैं, तो कैसे माना जाये कि वे आत्महितकारी-वचनों के प्रस्तोता निर्ग्रन्थ-मुनिराज हैं?*
        *क्योंकि जिनशासन की अवहेलना करनेवाले वचन कभी भी निर्ग्रन्थ-मुनिराज के वचनरूप में हो ही नहीं सकते हैं।*
       *यह तो कुछ वर्तमान की वचनावली के विषय में सांकेतिक रूप से वस्तुस्थिति की विवेचना की है। जिनवाणी में निर्ग्रन्थ-मुनिराजों के वचनों की कैसी महिमा व मर्यादा बतायी गयी है? -- इस विषय में इस आलेखमाला की आगामी-किस्तों में तथ्यात्मकरूप से विवेचन प्रस्तुत किया जायेगा।*
      (क्रमशः, आगे जारी)
      संपर्क दूरभाष : 8750332266
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