*मेरे आराध्य कैसे हों?* (मननीय हिन्दी कविता)
*मेरे आराध्य कैसे हों?*
(मननीय हिन्दी कविता)
✍🏻 *प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली*
[ आज व्यक्ति अपने आराध्य चुनने में दिग्भ्रमित है। बाहरी-शिक्षा की उन्नत-उपाधियाँ लेकर भी वह आस्था के क्षेत्र में बिल्कुल अशिक्षित/अज्ञानी बना हुआ है। वास्तव में आस्था का पात्र कौन है और उसकी उपासना-विधि कैसी होनी चाहिये?-- इस दृष्टि से इस लंबी कविता का सूत्रपात हुआ है। जो क्रमशः आपकेे पास प्रेषित की जायेगी। आज की किस्त में वर्तमान परिस्थितियों की विभीषिका का सांकेतिक-वर्णन मात्र प्रस्तुत किया गया है।]
*पूज्यों की इस भरी भीड़ में,*
*कहो किसको नमन करूँ मैं?*
*किसको अपना आदर्श मैं मानूँ?*
*अरु किसको वरण करूँ मैं?1।।*
*श्रद्धा के सौदागर इतने,*
*सब मेरी आस्था से खेलें।*
*कोई डराकर कोई लुभाकर,*
*मुझको चरणों की ओर धकेलें।।2।।*
*मैं चकित हूँ इस बाजार में,*
*सब मुझको दे टेर बुलाते।*
*"अपनी आस्था करो समर्पित,*
*बदले में क्या लोगे" कहते।। 3।।*
*कोई कहे "आ मेरी शरण में,*
*मालामाल मैं तुझे कर दूँगा।*
*बदले में निज-शीश नवाओ,*
*और थोड़ा चढ़ावा ही लूँगा" ।।4।।*
*कोई जगत् के 'भाईयों' जैसे,*
*मुझे हैं तीर-तलवार दिखाते।*
*कहें न कुछ पर मुद्रा से ही,*
*मुझको आतंकित कर जाते।।5।।*
*मैं भोला अज्ञानी-प्राणी ठहरा,*
*इन्हें देखकर मैं डर जाता हूँ।*
*भले ही श्रद्धा तनिक जगे नहिं,*
*तो भी डर पूजने लग जाता हूँ।।6।।*
*मेरे मन में है बसी क्षुद्रता,*
*विषय-वासनाओं की पूर्ति की।*
*मेरी कमजोरी का लाभ उठाकर,*
*कई पूज्यों ने संग सुंदरियाँ समेटीं।।7।।*
*जैसे नादां बच्चा जगत् में,*
*मीठी-गोली को नित चाहे।*
*अतः उसे जरा-सी गोली देकर,*
*कोई वंचक पकड़ ले जाये।।8।।*
*फिर वह मनचाहे काम कराये,*
*बच्चों को वह भिखारी बनाता।*
*बच्चा भोला डर-लालच में,*
*निज-गरिमा तज भीख माँगता।।9।।*
*छत्तीस-कोटि देवों के दर पर,*
*शीश नवाकर मैं नित कहता हूँ।*
*"दे दे बाबा! कोई तो दे दे,*
*मैं तो तुम्हारा ही बच्चा हूँ"।।10।।*
*यों पूज्यों के भरे बाजार में,*
*मैंने अपनी आस्था-पूँजी लुटाई।*
*उसके बदले तुच्छ-भीख पा,*
*"धन्य हो दाता" की हाँक लगाई।।11।।*
*यों दुर्लभ-नरभव बीता जाये,*
*अब मुझे यह चिंता है सताती।*
*श्रेष्ठ-कुलों में जन्म ग्रहण कर,*
*कैसे मैंने 'भिक्षुकवृत्ति' अपना ली?12।।*
*बड़ी बिडम्बना नित भोगूँ मैं,*
*अपनी व्यथा तुम्हें कैसे बताऊँ?*
*जग में मैं सम्मान हूँ पाता,*
*पर धर्मालय में 'दास' कहाऊँ!!13।।*
*नहीं इष्ट मुझे यह तुच्छ दासता,*
*किन्तु विकल्प कोई समझ न आये।*
*मुझे थोड़ी-बहुत टाफियाँ देकर,*
*सभी पूज्यजन मुझे बरगलाये।।14।।*
*दोष भले ही मैं उनको देता हूँ,*
*किंतु असल में दोषी तो मैं ही हूँ।*
*'याजक' बनने मैं निकला था,*
*'याचक' बनकर भी 'धर्मी' बना हूँ।।15।।*
*कितना बड़ा धोखा खाया है,*
*श्रद्धा के इस ठग-बाजार में।*
*इसका दोषी तो मैं खुद ही हूँ,*
*अपनी आदतों से लाचार मैं।।17।।*
*कुछ तो मैं भी रहा अनाड़ी,*
*ऊपर से इन देवों के स्वयंभू-एजेंट।*
*कभी प्यार से, कभी डराकर,*
*हमसे लेते आस्था का पेमेंट।।18।।*
*विश्वस्तर पर धर्म का धंधा,*
*इसीलिये सबसे बना धनवान्।*
*जिसके मठ में जितना धन है,*
*उतना ही बड़ा है वह भगवान्।।19।।*
*धर्म के धंधेबाजों ने यहाँ पर,*
*इतने सारे प्रपंच हैं पसराये।*
*चकाचौंध वैभव की दिखलाकर,*
*हमारे तन-मन-धन सब लुटवाये।।20।।*
(क्रमशः, आगे जारी)
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