। वाक्-संयम का महत्त्व।।* (मननीय आलेखमाला) {चौथी-किस्त}

 । वाक्-संयम का महत्त्व।।*

             (मननीय आलेखमाला)
              {चौथी-किस्त}
    *प्रो. सुदीप कुमार जैन. नई दिल्ली*


(पिछली तीन-किस्तों में मुनिधर्म में व्याख्यान-कौशल-संबंधी विषयों पर आगम-प्रमाणों के आलोक में संक्षिप्त-विवेचन प्रस्तुत किया था। इस किस्त में निर्ग्रन्थ-मुनिराजों के वचनामृतों का वैशिष्ट्य जिनवाणी के आलोक में विवेचित किया जायेगा।) 

        निर्ग्रन्थ-मुनिराजों की सर्वोपकारिणी-वाणी के  संबंध में किसी अज्ञात-आचार्य का एतद्विषयक-उद्धरण मुझे मेरी पुरानी-नोटबुक में मिला है, जो इसप्रकार है--
*"अपूर्वाह्लाद-दायिन्यः, उच्चैस्तर-पदाश्रयाः।*
*अतिमोहापहारिण्यः सूक्तयो हि महीयसाम्।।*
    अर्थात् निर्ग्रन्थ-मुनिवरों की मांगलिक-वाणी सुनकर श्रोतागण ऐसा अनुभव करते हैं--
     *1. उन्हें जैसा आनन्द अन्य किसी भी चर्चा में आज तक कभी भी नहीं मिला, वैसा आनन्द उन्हें निर्ग्रन्थ-मुनिवरों के मंगल-व्याख्यान में प्राप्त होता है। 
      *2. वे उन निर्ग्रन्थ-मुनिवरों के मंगल-वचनों को सुनकर अपने आप को अपनी वर्तमान-भूमिका से भी उच्चतर-भूमिका में अनुभव करने लगते हैं। अर्थात् अपनी वर्तमान-दशा की सुध-बुध खोकर वे उन मुनिवरों के व्याख्यान में वर्णित-स्थिति में अपने आप को अनुभव करने लगते हैं।-- ऐसा अनुपम-प्रभाव उन मुनिवरों के वचनों का श्रोता-समूह पर होता है। 
        *3. उनका विद्यमान-मोहभाव मानो दूर कहीं चला गया हो-- ऐसा उन्हें प्रतीत होता है। वे अपने आप को उन व्याख्यान-प्रदाता मुनिवरों के समान निर्मोही एवं आत्मसाधना की स्थिति में महसूस करने लगते हैं।-- कैसी आत्मिक-आनंद की स्रोतस्विनी उन मुनिवरों की वाणी में निर्झरित होती होगी, जिसमें स्नात होकर सम्पूर्ण श्रोता-समूह स्वयं को मोहरहित निर्मल-चरित के रूप में प्रतीत करने लगता होगा। (यह तो इन वचनों के आधार पर ही वैचारिक भावभूमि में प्रतीत किया जा सकता है, वर्तमान परिस्थितियों में तो ऐसे आत्मानुभूति-रस के अजस्र-प्रवाहवाले व्याख्यान किसी मुनिपदधारक के मुख से कहीं श्रुतिगोचर नहीं होते हैं। 
       *4. और उन निर्ग्रन्थ-मुनिवरों के वचन सूक्तियों के रूप में होते हैं, अर्थात् वे अत्यन्त सीमित-शब्दावली में सभी को युगपत् रूप से आनन्दामृत प्रदान करने में समर्थ होते हैं। क्योंकि 'सूक्ति' का तो यही लक्षण मनीषियों ने कहा है। 
       यदि निर्ग्रन्थ-मुनिवरों के वचनामृत का ऐसा अमोघ-प्रभाव नहीं हो, और उनके वचन भी सामान्य-वक्ताओं की भाँति मात्र क्षयोपशमजन्य-संतोष को या मनोरंजन करनेवाले वाग्जाल के रूप में हों, तो उन्हें निर्ग्रन्थ-मुनिवरों के वचन कौन कहेगा? ऐसे वक्ता तो कहीं भी गली-नुक्कड़ पर बोलते मिल जाते हैं। आचार्य पद्मनंदि ऐसे बावदूक-वक्ताओं के वर्तमान में प्रचुरता से उपलब्ध होनेके विषय में लिखते हैं--
*"वक्तारः प्रतिसद्म सन्ति बहवो,*
 *व्यामोह-विस्तारिणो।*
*येभ्यस्तत्परमात्म-तत्त्व-विषयं,*
*ज्ञानं तु ते दुर्लभाः।।*
         --(पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिका, 1/11)

       अर्थात् *1. ऐसे वक्ता तो हर घर में सहजता से मिल जायेंगे, जो पहले से संसार के मोहजाल में उलझे हुये जीवों का अपने वाग्जाल से मात्र व्यामोह ही बढ़ाते हैं।*
         (ऐसे नित नये प्रयोग देखे जा रहे हैं, जिनमें कोई कोरे-वाग्जाल की बातें करके उसे 'योग' कहता है, जिनका वर्णन जिनवाणी में वर्णित योगसाधना से रंचमात्र भी मेल नहीं खाता है। परन्तु लोकलुभावनी शब्दावली के वाग्जाल में लोग फँसकर उसे ही सच्चा-योग मानने लगते हैं और अपने को योगी अनुभव करने लगते हैं। जबकि यह आत्मविभ्रम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। लौकिक-शब्दावली में इसे 'मुगालता होना' कहा जाता है। 
       तो कोई बेहद-उत्तेजक भाषा-शैली एवं बॉडी-लैंग्वेज के साथ अपने से भिन्न विचारधारावालों पर नितान्त असंसदीय-शब्दावली का प्रयोग करते हैं और उसे सुनकर अंधभक्त-लोग उत्तेजना या धर्मोन्माद में भरकर तालियाँ बजाते हैं एवं जय-जयकार के नारों से पांडाल गुंजायमान कर देते हैं। भक्तों के द्वारा की जा रही ऐसी व्यामोह की प्रतिक्रिया उन्हें और अधिक उत्साहित करती है तथा वे और ज्यादा मुखर होकर बोलने लगते हैं। मुझे समझ में नहीं आता है कि निर्ग्रन्थ-मुनिवरों के वचनों से श्रोताओं के कषायभाव उपशान्तता को प्राप्त होने चाहिये या पहले से अधिक भड़कने चाहिये? 
      इसीप्रकार कई व्याख्यानकर्त्ता ज्योतिष, वास्तु, कर्मकांड, तंत्र-मंत्र आदि के स्वयंभू-विशेषज्ञ बनकर लोगों में इनकी वास्तविकता बताने की जगह इनके बारे में विभ्रम एवं अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं। आत्महित की जगह भवनों के, ग्रहों के, स्वास्थ्य के व सांसारिक-समस्याओं के समाधान के भ्रमजाल में फँसाते हैं। जिन कार्यों की जैन-आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में मिथ्यात्व-वर्धक क्रियाओं के रूप में निंदा एवं निषेध किया है, उन्हीं का पोषण वे अपने व्याख्यानों में कर रहे हैं, तो व्यामोह-वर्धक-वचन हुये या नहीं? -- आप सब स्वयं निर्णय करिये।) 
     *2. किन्तु ऐसे आत्महितकारी सच्चे वक्ता आज अत्यन्त दुर्लभ हो गये हैं, जो आत्मतत्त्व के विषय में सर्वोत्कृष्ट-ज्ञान देकर हमारा उद्धार करने में प्रवृत्त होते हैं।*
     (अर्थात् जिनके वचन. लौकिक-आकर्षणों का व्यामोह छुड़ाकर आत्मानुभूति की प्रेरणा एवं पथ-प्रदर्शन करते हों-- ऐसे वक्तव्यों के धनी निर्ग्रन्थ-मुनिराज आज कहीं दिखायी नहीं पड़ रहे हैं। जबकि पुण्यबंध की कारणभूत क्रियाओं की चर्चा करनेवाले कुछ ही हैं। एवं धर्मकार्यों व अनुष्ठानों के नाम पर कर्तावाद एवं गृहीत-मिथ्यात्व का पोषण करनेवाले उपदेशक ही प्रचुरता से मिल रहे हैं। जबकि कर्मक्षय का हेतु एकमात्र आत्मज्ञान ही है। इसीलिये मनीषियों ने कहा है कि *"आत्मज्ञान ही ज्ञान है, शेष सभी अज्ञान।"*
       इतना ही नहीं, आत्मज्ञान की चर्चा करनेवाले व्याख्यान-कर्त्ताओं को वे *"कोरी आत्मा-आत्मा की बातें करते हैं, करते-धरते तो कुछ भी हैं नहीं"* कहकर उनकी उपेक्षा व तिरस्कार करते हैं। तब आप इस कथन की वास्तविकता का अनुभव कर सकते हैं कि यहाँ क्या कहा जा रहा है और वह कितना सत्य व तथ्यात्मक है?) 
        इसी बात का समर्थन करते हुये आचार्य गुणभद्र जी लिखते हैं--
"जनाः घनाश्च वाचालाः, सुलभाः स्युर्वृथोत्थिताः।*
*दुर्लभा अन्तरार्द्रास्ते, जगदभ्युज्जिहीर्षवः।।"*
             --(आत्मानुशासन, 4)
        अर्थात् *ऐसे वाचाल और व्यर्थ की बातें करने में तत्पर वक्तागण तो प्रचुर-परिमाण में आज मिल जाते हैं। किन्तु जो आत्महित-पूर्वक करुणाबुद्धि से प्राणीमात्र के कल्याण का मार्ग बताते हों-- ऐसे वक्तागण अत्यन्त-दुर्लभ हो चुके हैं।*

       संभवतः इसी स्थिति की विषमता का गहराई से अनुभव करते हुये पंडितप्रवर आशाधर सूरि ने लिखा है कि--
*"कलि-प्रावृषि मिथ्यादृङ्-मेघाच्छन्नासु दिक्ष्विह।*
*खद्योतवत् सुदेष्टारः, हा! द्योतन्ते क्वचित् क्वचित्।।*
          --(सागर-धर्मामृत, 1/7)

      अर्थात् कलिकालरूपी वर्षा-ऋतु में मिथ्यात्वरूपी काली-घटाओं से घिरी दिशाओं में सच्ची आत्महितकारी-शिक्षा देने वाले सदुपदेशक मुश्किल से ही कहीं-कहीं दिखायी देते हैं। 
      (इस पद्य में कलिकाल, वर्षाऋतु,, मिथ्यादृष्टि, मेघाच्छन्न-दिशायें, खद्योतवत् , सदुपदेशक, हा(खेद) क्वचिद् क्वचिद् द्योतन्ते आदि के द्वारा बहुत कुछ संदेश दिये गये हैं, जिनका सविस्तार स्पष्टीकरण एवं विवेचन मैंने अपनी अलग लेखमाला 'हितकारी उपदेशक अत्यन्त-दुर्लभ' में किया है। अतः अतिविस्तार के भय से यहाँ अपेक्षित-बिन्दुओं का ही यहाँ मैं स्पष्टीकरण कर रहा हूँ।) 
     जब पंडितप्रवर आशाधर जी के काल में आत्महितकारी सदुपदेशकों की इतनी विरलता थी, तो वर्तमान सन्दर्भ में तो इनकी उपलब्धता कितनी व कहाँ हो सकती है?-- इसका विचार विवेकीजन आसानी से कर सकते हैं। 



        (इस किस्त में यहीं तक विवेचन को परिसीमित करते हुये इस विषय में अवशिष्ट-बिन्दुओं का आगामी अंतिम-किस्त में विवेचन करते हुये इस विषय को फिलहाल विश्रान्त करूँगा।) 
               (क्रमशः, आगे जारी) 
   संपर्क दूरभाष : 8750332266 
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