*त्रिविध-मुनिलिंग* (संक्षिप्त मननीय-लेख)

 *त्रिविध-मुनिलिंग*

(संक्षिप्त मननीय-लेख)
  ✍🏻  *प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली*


       मुनिधर्म के विषय में त्रिविध-लिंग का विवेचन यह नया अवश्य प्रतीत होगा, किन्तु न केवल महत्त्वपूर्ण है, बल्कि विचारणीय भी है।
      जिनधर्म में बहुत सारे विषयों का विवेचन करते समय भावगतरूप एवं द्रव्यगतरूप के साथ 'नोकर्मगत-भेद' का भी विवेचन मिलता है। यही वर्गीकरण इस विवेचन का मुख्य-प्रस्थानबिंदु है।
      आपने अभी तक मुनिधर्म में सामान्यतः 'द्रव्यलिंग' एवं 'भावलिंग' -- ये दो वर्गीकरण ही लिंग-विषयक अधिक-प्रचलित हैं, किन्तु ये दोनों सच्चे-मुनिधर्म के अनुयायी दो वर्गीकरण हैं।
         जिनके अन्तरंग में 'स्वरूपाचरण-चारित्र' की  वृद्धि के साथ-साथ 'संयमाचरण-चारित्र' को सहज ही प्रकट होता है, वे भावलिंग के धनी मुनिराज हैं। तथा जिनके अंतरंग में 'स्वरूपाचरण-चारित्र' तो प्रकट नहीं हो पाया है, तथापि मुनिधर्म के प्रति अपनी अनन्य-निष्ठा के कारण जो जिनाम्नाय में प्रतिपादित 'संयमाचरण-चारित्र' का पूरी-निष्ठा एवं समर्पण के साथ बाह्यरूप में अनुपालन करते हैं, वे 'भावलिंग' से रहित होने पर भी बाह्याचरण की दृष्टि से लगभग भावलिंगी-मुनिराजों के सदृश ही आचरण करते दिखाई देते हैं, उन्हें 'द्रव्यलिंग के धारक मुनिराज' कहा जा सकता है।
       कुछ अति-उत्साहीजन मुनिधर्म के आचरण से रहित होकर मुनिधर्म के विपरीत-आचरण करनेवालों को 'कुलिंगी' शब्द से सम्बोधित करने लगते हैं, वे समीचीन-वचनप्रयोग नहीं कर रहे हैं। क्योंकि जैसे *खोटा/नालायक बेटा* संज्ञा प्रयोग करने के लिये उसका बेटा होना अनिवार्य है, उसीप्रकार 'कुलिंगी' संज्ञा का पात्र वही हो सकता है, जो कि मुनिधर्म तो सच्चे रूप में अंगीकार किये हो, किन्तु किसी कारणवश मुनिधर्म की मर्यादा से विरुद्ध कोई व्यवहार उससे हो गया हो, तभी वह 'कुलिंग-मुनि' या 'भ्रष्ट-साधु' कहा जा सकता है। किन्तु जिनके सच्चा-मुनिधर्म कभी प्रकट ही नहीं हुआ है और सच्चे-मुनिधर्म की जिन्हें पहिचान तक नहीं है, वे 'कुलिंग-साधु' कैसे कहे जा सकते हैं? क्योंकि उन्हें तो कभी मुनिधर्म प्रकट ही नहीं हुआ है और सच्चे-मुनिधर्म के प्रति जिनकी निष्ठा एवं जिज्ञासा तक नहीं है। वे मात्र अपने आप को 'पंचमकाल के मुनि, जैसे श्रावक वैसे साधु' -- जैसे बहाने गढ़ते हुये जबरन ही मुनि/साधु मानते/कहलाते हैं, उन्हें तो 'कुलिंग-मुनि' भी नहीं कहा जा सकता है।
      तथा जिनकी निष्ठा ऐसे 'द्रव्यलिंग' के अनुरूप निर्दोष-संयमाचरण के अनुपालन की तो है ही नहीं और 'भावलिंग' का तो जिन्हें अर्थ तक पता नहीं है; मात्र लोकैषणा या भावावेश में जिन्होंने देह से नग्नपना तथा मुनिधर्म के बाहरी-चिह्न के रूप में पिच्छी-कमंडलु जैसे उपकरणों को धारण कर लिया है। इन तीन चिह्नों (नग्नत्व, पिचछी व कमंडलु) के अतिरिक्त जिनके जिनाम्नाय में प्रतिपादित निर्ग्रन्थ-मुनिधर्म के स्वरूप व मर्यादा की तनिक भी परवाह नहीं है तथा जो थोड़ा-बहुत बाह्य-व्यवहार अपनाते भी हैं, तो मात्र समाज में अपने को 'निर्ग्रन्थ-मुनिराज' के रूप में मान्यता पाने के लिये अपनाते हैं, उन्हें मात्र शरीरादि 'नोकर्म' की दृष्टि से 'फोटोजनिक' मुनिवेष के कारण 'नोकर्म-मुनिलिंग' के रूप में कहा जा सकता है।
      जी हाँ, यह प्रतिपादन जिनाम्नाय का अतिक्रमण कदापि नहीं है। क्योंकि जिनाम्नाय में ऐसे स्वरूप को भला और कहा भी क्या जा सकता है?
       जिन्होंने न तो शुद्ध आत्मिक-भावरूप 'भावलिंग' की पात्रता प्रकट की और जिनाम्नाय के अनुरूप बाह्य-संयम-आचरण की मर्यादा की रक्षा तक जो नहीं कर पा रहे हैं, उसके प्रति उनकी निष्ठा एवं समर्पण की तो बात ही दूर है; तो ऐसे देह व अन्य बाहरी पौद्गलिक-चिह्नोंवाले चित्राम-रूप मुनि-स्वरूप को 'नोकर्म-मुनिलिंग' के अलावा और क्या कहा जा सकता है?
      निष्ठा और समर्पण के बिना जब संसार और गृहस्थी तक नहीं चल सकते हैं, तो लोकोत्तर-मुनिधर्म बिना उसके प्रति अनन्य-निष्ठा एवं समर्पण के कैसे चरितार्थ हो सकता है? इन भावों के बिना तो उस महान् मुनिधर्म का तो मखौल बनना अपरिहार्य हो ही जायेगा। ऐसे कई घटनाक्रम आज हम प्रत्यक्ष व परोक्षरूप में देख-सुन-जान रहे हैं।
        परेशानी की बात मात्र यह नहीं है कि वे परम-हितकारी निर्ग्रन्थ-मुनिधर्म का अनादर कर रहे हैं। इस देश में आज लोकतंत्र होने के कारण कईतरह की बातें व व्यवहार चल रहे हैं, तो यह भी चल जाये, (चल ही तो रहा है इसी ओट में) तो कोई विशेष-बात नहीं होती और न ही मुझे यह लिखने की आवश्यकता होती। चुपचाप सब देखकर भी चुप रहता या इनकी उपेक्षा/इग्नोर कर देता।
        परन्तु बड़ी-आपत्ति तो *हमारी समाज में निर्ग्रन्थ-मुनिधर्म की पहिचान तक लुप्त हो जाने के संकट की है। उस पहिचान को लुप्त होने से बचाये रखने के लिये मुनिधर्म के इन पक्षों पर समय-समय पर विविधरूपों में तथ्यात्मकरूप से विवेचन अपेक्षित है।*
       अतः यह यहाँ निष्कर्षरूप में बात समझी जा सकती है कि जिनके अंतरंग 'भावलिंग' का जिनवाणी के अनुरूप कहीं कोई लक्षण नहीं दिखाई देता है और संयमाचरण के जिनाम्नाय की मर्यादा के अनुसार निर्दोष-पालन के प्रति भी जिनकी निष्ठा और समर्पण नहीं होने से जिनवाणी में प्रतिपादित 'द्रव्यलिंग' भी चरितार्थ नहीं हो रहा है ; फिर भी वे देखने में या चित्र/वीडियो आदि में 'निर्ग्रन्थ-मुनिराज' के रूप में ही दिखाई देते हैं, उन्हें 'नोकर्म-मुनिलिंग' के रूप में जाना जा सकता है।
        विवेकीजन इस कथन का मर्म व अभिप्राय भलीभाँति समझ सकते हैं। इसलिये अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं है। परन्तु *हमें यह भी अच्छी-तरह से समझ ही लेना होगा कि 'भावलिंग' ही वास्तविक निर्ग्रन्थ-मुनिधर्म है।*
       तथा *निष्ठापूर्वक आचरित होनेवाले 'द्रव्यलिंग' को भी जिनाम्नाय में 'मुनिलिंग' के रूप में बाह्य-व्यवहार की मान्यता दी गई है।*
          *किन्तु 'नोकर्म-मुनिलिंग' की संज्ञा को निर्ग्रन्थ-मुनिराज के रूप में कोई मान्यता जिनाम्नाय में प्राप्त नहीं है, फिर भी यह वर्गीकरण आज की परिस्थितियों में अपेक्षित हो गया है ; क्योंकि 'भावलिंग' तो दूर, निर्दोष-'द्रव्यलिंग' के दर्शन भी दुर्लभ हो चुके हैं।
       *अतः कोई तो संज्ञा चाहिये, जिससे इन्हें शास्त्रीय-नाम मिल सके। यही कारण है कि इस आलेख में यह वर्गीकरण (नोकर्म-मुनिलिंग) उचित समझा गया है। यह न तो किसी पर कोई कटाक्ष है और न ही इसका उद्देश्य किसी का अपमान करना है, बल्कि यह परिस्थितियों का यथार्थ वस्तुनिष्ठ-मूल्यांकन है।*

*संपर्क दूरभाष : 8750332266*
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