*विद्वानों और साधर्मीजनों का आत्मसम्मान हमें क्या समझ आता है?* (विचारणीय समसामयिक-लेख)

 *विद्वानों और साधर्मीजनों का आत्मसम्मान हमें क्या समझ आता है?*

  (विचारणीय समसामयिक-लेख)

  ✍🏻 *प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली*
    
        जयपुर-राज्य के तत्कालीन दीवान अमरचंद्र जी की निःस्पृह-दानवृत्ति को जब राजा जयसिंह ने स्वयंसाक्षी बनकर देखा, तो वे उनकी इस भावना एवं कार्यशैली से अभिभूत होकर अगले दिन राजसभा में बोले--
*"कहाँ सीखी दीवान जी, ऐसी देनी देन।*
*ज्यों-ज्यों कर ऊँचो रहे, त्यों-त्यों नीचे नैन।।*

        तब उनके उत्तर-स्वरूप दीवान अमरचंद्र जी ने सविनय हाथ जोड़कर अपनी लघुता व्यक्त करते हुये कहा कि--
       *" देनेवाला और है, देत रहते दिन-रैन।*
       *लोग भरम मेरौ करें, यातैं नीचे नैन।।"*
      
      *क्या हमारे श्रेष्ठिगण, उनके ट्रस्ट/संस्थायें एवं मदद करने के आयोजनों के पीछे इस पवित्र-भावना की छाया भी विद्यमान है?-- गम्भीरता से विचार करिये।*

       इस घटनाक्रम के कुछ बिन्दु विशेषरूप से विचारणीय हैं, जैसे कि--
*1. दीवान अमरचंद्र जी ने जरूरतमंदों की खोज व पहिचान अपनी रुचि व निष्ठा से स्वयं की थी, न कि विज्ञापन व सूचनायें निकालीं थीं कि "जिसे जरूरत हो, वह इन-इन प्रक्रियाओं को पूरा करते हुये आवेदन करे।"*

*2. दीवान अमरचंद्र जी ने यह भी नहीं शर्त लगायी थी कि "अम्मां! तुम्हारी जितनी जरूरत है, उसका आंशिकरूप से ही मैं दूँगा ; बाकी तुम दूसरों से माँगना या अन्य किसीतरह से खुद निबटना।"*
*3. दीवान अमरचंद्र जी ने उसके लिये समाज में या लोगों से अपील करके दानराशि एकत्रित नहीं की थी। जो किया था, अपने संसाधनों से स्वयं ही करुणाभाव से किया था।*
*4. उन्होंने अपने से सहयोग प्राप्त करनेवाले लोगों के नाम भी किसी को नहीं व्यक्त होने दिये थे ; बल्कि उनका प्रयास तो यह रहता था कि वे लोगों की मदद कर दें और लेनेवाले तक को उनके बारे में पता तक नहीं चले कि उनकी मदद किसने की है? ताकि वह न तो कृतज्ञता-ज्ञापन करे और न ही उसे उनसे अभिभूत होकर रहना पड़े।*
*5. दीवान अमरचंद्र जी ने राजा जयसिंह जी को उनकी लोगों की मदद करने की प्रवृत्ति एवं घटनाक्रम पता चलने के बाद भी उन्होंने इसका खेद ही व्यक्त किया कि किसी को पता ही क्यों चला? उन्हें पूरी सावधानी से वह सहयोग करना चाहिये था, ताकि मदद भी हो जाये और दुनियाँ को भनक तक नहीं लगे।*
*6. दीवान अमरचंद्र जी ने राजा के द्वारा राजसभा में उनकी दानशीलता की प्रशंसा किये जाने पर खेद व्यक्त करते हुये कहा था कि "पूर्वकृत-पुण्यकर्म के उदय से हमें यह संपत्ति मिली है, हमारी मेहनत से नहीं मिली है।" इसीलिये उन्होंने "देनेवाला और है, देत रहत दिन-रैन" कहा था।*
*7. साथ ही राजा जयसिंह जी द्वारा राजसभा में उनकी प्रशंसा किये जाने को एक 'भ्रम' बताया, क्योंकि वे मानते थे कि यह संपत्ति उनकी नहीं है, उन्हें लोगों की मदद करने का सौभाग्य मिला-- यही बड़ी-बात है। लेकिन यदि कोई उन्हें 'देनेवाला' मानता है, तो यह उसका भ्रम है और इसकारण उन्होंने "यातैं नीचे नैन" कहकर अपने आप को शर्मिन्दा अनुभव किया था।*

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    *इस घटनाक्रम के उल्लेख का निहितार्थ--*
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    *इस ऐतिहासिक घटनाक्रम को यहाँ उल्लिखित करने का निहितार्थ मात्र यही है कि हम लोग क्या किसी जरूरतमंद की मदद 'पवित्र-भावना' एवं 'आदर्श-विधि' से कर भी पा रहे हैं?-- इसका हम स्वयं आत्मालोचन करें।*

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    *क्या कमियाँ हैं हमारी 'भावना' एवं 'प्रविधि' में?--*
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*1. हम स्वयं कम और दूसरों से संग्रह करके उसके 'दातार' बनना चाहने लगे हैं।*

*2. हम जरूरतमंद-व्यक्ति की जरूरत को जानते हुये भी यह कहने लगे हैं कि "हम समझ रहे हैं कि आपको इतनी जरूरत इस निमित्त है, परन्तु हम इसका अंश ही देंगे, बाकी व्यवस्था आप अन्य-स्रोतों से करिये। (क्योंकि हमारा उद्देश्य किसी की मदद करना नहीं है, बल्कि बहुत सारे लोगों की मदद करने की अपने से उपकृतों की संख्या बढ़ाना है। हमारा ध्यान क्वालिटी/गुणवत्ता पर न होकर क्वान्टिटी/संख्या पर है। तब देकर हम तो 'दातार' बन गये, परन्तु वह व्यक्ति उतने से सहयोग से अपनी उस समस्या से छुटकारा पा सका या नहीं?-- इससे हमें न तो मतलब है और न ही हमें इसकी परवाह। तो हम कैसे मददगार हुये?-- यह तो विचार करें।)*

*3. हमने "दान देय मन हरष विशेखै" की भावना को तिरोहित करके "मान लेय मन हरष विशेखै" की मनोवृत्ति को अपना लिया है।*

*4. हमने बड़े-व्यक्ति बनकर स्वयं जरूरतमंदों की पहिचान करते हुये स्वयं उनकी मदद करने की जगह विज्ञापनों के माध्यम से जरूरतमंदों की जानकारियाँ जुटाने और फिर उनके आत्मसम्मान को पद-दलित करते हुये उन्हें "माँगने" के लिये विवश करना प्रारंभ कर दिया है कि आप हमसे माँगिये और इन-इन औपचारिकताओं को पूरा करते हुये माँगिये, तब हम आपको कुछ दे देंगे।"*

*5. हम विद्वानों व साधर्मीजनों के सहयोग का आडम्बर तो भरपूर करना चाहते हैं, किन्तु उनके आत्म-सम्मान की चिंता हमें तनिक भी नहीं है। तभी तो हम उनसे ऐसी शर्तें लगाते हैं कि "आवेदक अपनी समाज/मुमुक्षु-मंडल/संस्था के किसी पदाधिकारी से लिखवाकर दे कि आवेदक की आर्थिक-स्थिति वास्तव में अच्छी नहीं है और उसे आपके सहयोग की बहुत जरूरत है। उसका चाल-चलन भी अच्छा है।"*
        *हमारे धर्म में तो यह परिपाटी किसी के सहयोग के लिये कभी भी नहीं अपनायी गयी थी। पार्श्वनाथ ने नाग-नागिन को 'णमोकार-मंत्र' सुनाने से पहले ज़हर छोड़ने व लोगों नहीं काटने का संकल्पपत्र नहीं भरवाया था। जीवन्धर कुमार ने भी कुत्ते को 'णमोकार-मंत्र' सुनाने से पहले उससे मांसाहार छोड़ने की शर्त नहीं लगायी थी। विचार करिये कि हमारी मानसिकता कहाँ जा रही है?*

*6. हम विद्वानों का महिमामंडन खूब करते हैं, परन्तु क्या हमें पता है कि एक चिंतनशील एवं समुन्नत-विद्वान् बनने की सबसे अनिवार्य-आवश्यकता है कि 'वह आत्मसम्मान का धनी हो। अहंकारी न हो, किन्तु आत्मगौरव की भावना उसमें अवश्य हो। अन्यथा या तो वह निर्लज्ज बनकर निर्माल्य का सेवन करते हुये धनिकों की चापलूसी करेगा। या फिर दीनता की भावना से ग्रसित होकर मात्र विद्वत्ता की खानापूर्ति करेगा। और एक चिंतनशील-विद्वान् के रूप में अपने प्रातिभ-अवदानों से समाज को कोई दिशाबोध नहीं दे सकेगा'।*
      *तब हम विद्वानों की किसी जरूरतमंद-स्थिति को जानकर स्वयं आगे आकर उनके मान-सम्मान की रक्षा करते हुये उनकी मदद बिना किसी विज्ञापन या प्रचार के तथा उनसे किसी व्यक्ति से प्रमाणपत्र माँगे बिना स्वयं क्यों नहीं करना चाहते हैं? लोगों से लिखवाने की शर्त लगाकर क्यों उनमें दीनता का बोध भरना चाहते हैं? और समाजजनों से उनकी जरूरतमंदता का प्रमाणपत्र माँगकर क्यों उनकी समाज के श्रेष्ठियों के बीच उसे 'दयनीय' बनाना चाहते हैं?-- शांतमन से विचार करिये। यदि हम विद्वानों का सम्मान करते हैं, तो ऐसी औपचारिकताओं एवं दुविधाओं में विद्वानों को न उलझायें और उनकी परिस्थितियों को भलीभाँति समझते हुये स्वयं आगे जाकर ससम्मान उनका सहयोग करें।*
       *यही निवेदन साधर्मीजनों के सहयोग के बारे में भी करना चाहता हूँ। एक ओर हम 'साधर्मी-वात्सल्य' की महिमा गाते हैं, और दूसरी ओर हम एक साधर्मी के आत्मसम्मान की रक्षा करते हुये उसकी मदद तक नहीं करना चाहते हैं। दिखावा और औपचारिकताये, छोड़िये तथा जिसे अपने आसपास जिस किसी साधर्मी की कोई ऐसी स्थिति पता चले, तो स्वयं आगे जाकर उससे अत्यन्त वात्सल्य-पूर्वक बात को समझें और जहाँ तक हो सके, वहाँ तक बिना जताये उसकी मदद करें। ध्यान रखिये कि 'दान में परिणामों की विशुद्धि की महनीय-भूमिका है।' अतः उनकी मजबूरी या अशुभकर्म-जनित स्थिति में हम उनको 'दीन' बनाने की जगह उनके आत्म-सम्मान को सुरक्षित रखते हुये उनकी मदद करें, तथा बदले में 'मान' की आकांक्षा नहीं रखें। अन्यथा यदि दान के बदले मान लोगे, तो पैसा भी जायेगा और पुण्यबंध भी नहीं होगा।*

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  *तो हम सब क्या करें?--*
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      *यह एक वास्तविक-जिज्ञासा/प्रश्न है। क्योंकि आजकल जब भोजन-सामग्री से लेकर दवाइयाँ तक, तथा कुशलक्षेम से लेकर श्रद्धांजलि तक सब कुछ ऑनलाइन हो रहा है, तब ऐसी परिस्थितियों में हम क्या करें? हम स्वयं तो कहीं जा-आ नहीं सक रहे हैं, इसीलिये न तो किसी की कोई खोज-खबर मिल रही है और न ही हम जाकर किसी को कोई तन-मन-धन-संसाधन से योगदान कर पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति या संस्था आगे आकर जरूरतमंद-लोगों की मदद करना चाहे, तो हम तो उसी में अपना योगदान करके अपने धन का सदुपयोग करना चाहते हैं। इसमें गलत क्या है?*
      *इसका सीधा-सपाट उत्तर यही है कि कुछ गलत नहीं है, क्योंकि आपका अभिप्राय तनिक भी गलत नहीं है। मेरा निवेदन तो इसकी उस प्रक्रिया के बारे में है, जो उन जरूरतमंद-लोगों तक आपके योगदान को पहुँचाने के लिये ये संस्थान/व्यक्ति कर रहे हैं। क्योंकि वे आपके द्वारा प्रदत्त धन व साधनों को अपनी शर्तों व सुविधाओं के अनुसार जरूरतमंद-लोगों तक पहुँचा रहे हैं। उनमें कोई भी स्वयं किसी जरूरतमंद व्यक्ति की न तो पहिचान करता है और न ही उसे अपनी भावना के अनुरूप योगदान कर पाता है। उदाहरण के तौर पर आपने किसी की प्राणरक्षा के भाव से योगदान किया। किन्तु इन्होंने उसकी अनिवार्य-जरूरत को जानते हुये भी लगभग 25% से 40% का योगदान उन तक पहुँचाया। अब इतने से उसकी इलाज आदि की जरूरत पूरी नहीं हो सकी, और वह व्यक्ति अन्य साधनों/व्यक्तियों से शेष-साधन/राशि नहीं जुटा सका तथा इसके परिणामस्वरूप उस व्यक्ति का पूरा-इलाज नहीं हो पाने से उसका देह-परिवर्तन हो जाता है, तो आपने जिस प्राणरक्षा-हेतु उपचार की पवित्र-भावना से अपना योगदान दिया था, क्या उसकी पूर्ति हो सकी?*
      *साथ ही, ये संयोजक-संस्थान/व्यक्ति जिन शर्तों के साथ (अपनी समाज या मंडल के प्रमुख का अनुमोदना-पत्र, अपना बैंक-स्टेटमेंट, W. E. S. का प्रमाणपत्र, हॉस्पिटल के डॉक्टरों का पूरा स्टेटमेंट कि क्या इलाज होना है और उसके लिये कितना धन/साधन चाहिये-- इत्यादि) उसको पराधीन एवं आत्म-सम्मान की दृष्टि से दीनतायुक्त बनाते हैं, तो कई आत्म-सम्मान के धनी सच्चे-लोग इस बीमारी आदि की विषम-स्थिति में उनकी इतनी जटिल एवं असम्मानजनक शर्तों को पूरा करने की जगह अपनी परिस्थितियों के आगे आत्म-समर्पण करना बेहतर समझेंगे। तब आपके योगदान का क्या लाभ हुआ? ऐसे जरूरतमंद-लोगों तक तो वह पहुँच ही नहीं पाया।*
      *इसीलिये मेरा आप सबसे विनम्र-अनुरोध है कि आप समाज में दानदातार बनने की जगह अपने परिचितों एवं आस-पड़ोस के साधर्मीजनों की ओर देखें। उनमें संभावनायें पूरी-निष्ठा से तलाशें और उनके अनुरोध की रंचमात्र भी अपेक्षा किये बिना, किसी भी दिखावे और आडम्बर के बिना शालीनतापूर्वक उनका सहयोग करें। इससे आपकी भावनाओं के अनुरूप सहयोग प्रतिफलित हो सकेगा और आप किसी एक को भी सहयोग करके अपने धन-संसाधन का सदुपयोग कर सके, उसकी प्राणरक्षा में उपयोगी बन सके; तो आपका प्रयास सार्थक बन सकेगा।*
      *हो सके, तो अपनी सुरक्षा के मानकों का विवेकपूर्वक ध्यान रखते हुये यदि स्वयं कुछ धैर्य बंधाना, हौंसला बढ़ाना, शुद्ध व सात्त्विक भोजन, औषधि आदि की व्यवस्था कर देना, यदि जरूरत हो, तो वैय्यावृत्ति आदि कर देना, उन्हें धार्मिक व आध्यात्मिक-पाठ सुनाकर/ संबोधन करके उनके मन को संतृप्त करना आदि कार्य करके आप बहुत कुछ योगदान कर सकते हैं। यदि किसी को उपचार-हेतु हॉस्पिटल में भर्ती-प्रक्रिया में आप मदद कर सके, तो उस निरुपाय-स्थिति में परेशान-व्यक्ति की जो मदद आप करेंगे, वह उसे बहुत-बड़ी मदद होगी। मैं जानता हूँ कि मेरे प्रिय भाई श्री प्रदीप जैन 'आदित्य', झाँसी (पूर्व केन्द्रीय ग्रामीण विकास राज्मन्त्री) ने ऐसे ही किसी जरूरतमंद-सज्जन को मेडीकल-कॉलेज में I. C. U. में खड़े-खड़े अपने प्रभाव का सदुपयोग करके एडमीशन करवा दिया, तो उस सब तरफ से निराश हो चुके व्यक्ति के चेहरे पर अपार-पीड़ा में आयी कृतज्ञता की भावना और संतोष की रेखा आयी, उसकी तुलना अपार-सम्पत्ति के दान से भी नहीं की जा सकती है। वे इसके अतिरिक्त किसी भी जरूरतमंद-व्यक्ति का पता चलते ही स्वयं शुद्ध-भोजन बनवाकर उस तक पहुँचा रहे हैं, आवश्यक-औषधियाँ पहुँचा रहे हैं और हरसंभव योगदान कर रहे हैं। वे ही नहीं, हमारी समाज के बहुत सारे और भी सहृदय-लोग ऐसा कर रहे होंगे।*
      *इसलिये मेरा यह विनम्र-अनुरोध है कि आप दूर न जाकर अपने आसपास के लोगों में ही संभावनायें तलाशिये और जो भी संभव हो, उनकी मदद कीजिये। जितने आपके परिचित, सम्बन्धी, मित्रजन हैं; मैं कहूँगा कि षदि कोई शत्रु भी हो, तो उसकी भी बिना किसी दुर्भाव के सौहार्द-पूर्वक संपर्क करके कुशलक्षेम पूछिये। दिखावा किये बिना सच्चे मन से उसके मनोगत को जानिये और जो भी बन सके, वह सहयोग उसके लिये कीजिये। विचार करिये कि क्या हम ऐसा कर रहे हैं या हमने अपनी मनःस्थिति को इसतरह का बनाया है?*
      *ध्यान रखिये कि मात्र धन देना ही एकमात्र 'करुणादान' की विधि या साधन नहीं है। यदि हम सब अपनी क्षमता और भावनाओं के अनुरूप निकट-दूर के अपने लोगों की सुध-बुध लेकर अपनी क्षमता के अनुरूप सेवा/सहयोग करते हैं, तो वर्तमान-परिस्थितियों में आपका यह योगदान अतुलनीय होगा।*
        *संस्थाओं व संयोजकों से मेरा कोई रंचमात्र भी अन्यथाभाव नहीं है। जब कोई किसी की सुध नहीं ले रहा हो, तब आपने इस विषय में सोचा व प्रयास किया, इस निमित्त मैं आपको वर्धापन करता हूँ । किन्तु यह अवश्य कहूँगा कि बंद कमरों में बैठकर नियमावलियाँ बनाकर लोगों से आवेदन-पत्र मत मँगाइये। अपने परिचितों व अन्य समाजसेवियों के संपर्क में रहिये, उनसे जानकारियाँ एकत्र कर उनका डॉटाबेस बनाइये और फिर जिन व्यक्तियों के बारे में आप अपने संपर्क से तथ्य जान सकते हैं, स्वयं समय व रुचिपूर्वक जानिये। और वास्तविक जरूरतमंद-लोगों को चुनकर उनकी उनके आत्म-सम्मान को चोटिल किये बिना मदद कीजिये। संख्या की गणनापूर्ति मत करिये कि कितने लोगों को व कितनी राशि की मदद आपने की है? बल्कि इस बात को प्रधानता दीजिये कि क्या आप किसी के इलाज को पूरा करा सके हैं, उसकी जीवनरक्षा में सहयोगी बन सके हैं, उसकी निराशा को आशा में बदल सके हैं और उसके डूबते आत्मविश्वास को संबल प्रदान कर सके हैं?*
      *मैं बिना किसी पूर्वाग्रह के और बिना किसी व्यक्तिगत या संस्थागत-सन्दर्भ के अपनी भावनाओं को इस आलेख में व्यक्त कर रहा हूँ। अतः इसे किसी भी व्यक्ति, संस्था या घटनाक्रम से जोड़कर नहीं देखा जाये। हम 'करुणादान' की भावनात्मक गहराइयों को पहिचानें और समर्पित हृदय से इन परिस्थितियों में अपना निःस्वार्थ योगदान करें-- यही पवित्र-भावना इस आलेख में मेरी निहित है। मैं स्वयं व्यक्तिगत रूप से और अपने परिचितों को प्रेरित कर इसी दिशा में सतत-प्रयत्नशील हूँ। इससे अधिक कुछ भी कहना या लिखना 'आत्मश्लाघा' (अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना) कहलायेगा। अतः मैंने अपने स्वयं के अनुभवों को इसमें संजोया है।*
    ( यद्यपि मैं व मेरा परिवार आज तक सुयोगवश वर्तमान-विभीषिका से बचा हुआ है और कोई बाधा नहीं आयी है। परन्तु मैं तन से भले ही बहुत ज्यादा भागदौड़ या जनसंपर्क नहीं कर रहा हूँ, परन्तु मन-वचन-कर्म से व यथासंभव संसाधनों से इस आलेख में कथित-बिन्दुओं का अनुपालन कर रहा हूँ।)
      *इसी लगभग 15 माह की अनवरत विषमता में मैंने जो अनुभव प्राप्त किये हैं और जो मुझे परिष्कार के योग्य बिन्दु प्रतीत हुये हैं, उन्हें ही निर्मल-अन्तःकरण से इसमें संजोया है, ताकि कुछ जरूरतमंद-लोगों तक तो हम यथाशक्ति सच्चे-अर्थों में सहयोग कर इस विषमता को भी किसी के लिये सुखद-अहसास में बदल सकें।*
संपर्क दूरभाष : 8750332266
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