*'आयोजन' महत्त्वपूर्ण हैं या 'प्रयोजन'* (मननीय-लेख)

 *'आयोजन' महत्त्वपूर्ण हैं या 'प्रयोजन'*

(मननीय-लेख)
  ✍🏻 *प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली*

      धार्मिक-चर्चा एवं प्रभावना के आयोजनों की जिनधर्म की प्रभावना में महनीय-भूमिका होती है-- यह असन्दिग्ध-तथ्य है। किन्तु यह भी उतना ही गम्भीरता से मननीय एवं सावधानी के लिये विचारणीय-तथ्य है कि हम आयोजनों को वरीयता दें या कि प्रयोजनों को?
      *हमारा मुख्य-प्रयोजन तो आत्महित ही है-- इसमें दुविधा के योग्य कोई बात ही नहीं है। साथ ही हम स्वयं को एवं अन्य जीवों को विषय-कषाय के अनावश्यक-प्रपंचों से यथाशक्ति बचाने एवं धर्ममार्गेण में निरत रखने के लिये विवेकपूर्वक आयोजन भी करें, तो यह भी "कामादिक करि वृषतैं चुगते निज-पर को सुदिढावै" के नीतिनिर्देश के अनुसार 'प्रभावना' का ही कार्य है।*
      किन्तु वर्तमान-परिस्थितियों में जब सम्पूर्ण-विश्व ही कोरोना-महामारी की चपेट में है, जो कि जन-सम्पर्क के कारण अधिक फैलती है, तब हमें जनसमुदाय को जुटानेवाले एवं भीड़भाड़ में जानेवाले कार्यक्रमों एवं आयोजनों को करने के बारे में विचार करना होगा।
        *हमारी धर्माराधना बाधित न हो, यथायोग्य-रीति से चलती रहे; किन्तु हमारे धार्मिक-आयोजन संक्रमण फैलाने के माध्यम नहीं बनें-- इतना विवेक हमें रखना ही होगा।*
        कहीं ऐसी नौबत नहीं आन पड़े कि इस संक्रमण की विकरालता इतनी बढ़ जाये कि हमें अनिवार्य-धर्माराधना से भी वंचित होना पड़े। आज यह विषय गम्भीरता से विचारणीय हो गया है। क्योंकि देश के प्रमुख जैनसमाज-बहुल नगर एवं मध्यप्रदेश की आर्थिक-राजधनी 'इन्दौर' में मुमुक्षु-समाज के द्वारा कुछ ही दिन पहले किये गये मुमुक्षु-समाज के एक बड़े-आयोजन में सम्मिलित हुये प्रमुख मुमुक्षु-श्रीमन्तों, संस्था-प्रमुखों, विद्वानों एवं धर्मानुरागियों में से बहुसंख्यक-लोग आज कोरोना-पॉजिटिव होने की सूचना है। हमारे शीर्ष-ट्रस्ट के एक बड़े पदाधिकारी का तो इसी आयोजन में सम्मिलित होने के बाद कोरोना-पॉजिटिव होने के कारण बहुत-उपचार कराने के बाद भी कोई सफलता नहीं मिलने से आज देह-परिवर्तन हो गया है।
        साथ ही, की शीर्षस्थ आयोजक, संयोजक एवं प्रतिभागी-जन इस संक्रमण से पीड़ित होकर शारीरिक व मानसिक पीड़ा के साथ उपचार कराने में संलग्न हैं।
      इस बीमारी के साथ सबसे बड़ी-विषमता तो यह है कि यह जन-सम्पर्क से संक्रमित होती है, इसलिये इससे संक्रमित-व्यक्ति से कोई सगे-संबंधी तक सीधे संपर्क नहीं करते हैं, बल्कि बचने का प्रयास करते हैं। अपने परिणामों पर नियंत्रण न हो और स्वतंत्र-तत्त्व-विचार का  अभ्यास न हो; तो इससे संक्रमित-व्यक्ति इस काल में जिसतरह के मानसिक-तनाव एवं शारीरिक-पीड़ा से गुजरता है, उसको शब्दों में कहना कठिन है।
    इस बीमारी का कोई परफेक्ट-इलाज भी  नहीं है, क्योंकि अभी तो इसके उपचार परीक्षण-विधि से गुजर रहे हैं। कोई भी सुनिश्चित-उपचार नहीं है। प्राथमिक-स्थिति में यदि पूरी-सावधानी एवं विवेकपूर्वक आचरण करते हुये पर्याप्त-मनोबल के साथ सावधानीपूर्वक-उपचार किया जाये, तब तो सुधार की संभावना अच्छी रहती है। परन्तु यदि मनोबल कमजोर होने, शरीर में अन्य बड़ी-बीमारियों की पहले से उपस्थिति रहने पर तो यह बीमारी इसतरह से चपेट में लेती है कि सम्पूर्ण मेडिकल-साइंस ही हाथ खड़े कर देती है।
        कल्पना करिये कि ऐसी विकट-स्थिति के लिये क्या हम-आप मानसिक व शारीरिक रूप से तैयार हैं? इसके उपचार में तो आर्थिक-पक्ष मजबूत होना भी वर्तमान-परिस्थितियों में बहुत-अहम-भूमिका रखता है। जरा-सी गम्भीर-स्थिति होते ही इसका इलाज आम-लोगों की पहुँच से बाहर हो जाता है। लाखों रुपये खर्चने के बाद भी कोई 1% की गारंटी लेने को तैयार नहीं होता है। साथ ही, इस बीमारी से संक्रमित-व्यक्ति के परिवारजन भी प्रायः साथ के कारण इससे संक्रमित हो जाते हैं। तब कौन किसको संभाले?
      *संसार की असारता एवं संबंधों व संबंधियों की वास्तविकता के अवबोध के लिये तो यह बीमारी बड़ी-बिडम्बना बनकर आयी है, क्योंकि जीवित रहते हुये भी कोई सगा हाथ लगाने तक को तैयार नहीं होता है और देह-परिवर्तन हो जाने पर नश्वर-काया की अंतिम-क्रिया करने के लिये चार-कंधे तक नहीं मिल पा रहे हैं। अपने लिये यह बीमारी न जकड़ ले-- इस डर के मारे सब ऑनलाइन ही औपचारिकता की पूर्ति कर देना चाहते हैं। सरकारी-लोग जेसीबी मशीनों से शवों को उठाकर अंतिम-संस्कार कर रहे हैं-- ऐसी अकल्पनीय-बिडम्बना आज बन पड़ी है।*
        *ऐसी स्थिति में हम सबको 'स्थितिकरण-अंग' का पालन तो अतिरिक्त-सावधानीपूर्वक करना ही है, आत्महितकारी-चर्चा एवं तत्त्व-विचार के प्रकल्पों के द्वारा परिणामों की संभाल का निरन्तर-अभ्यास करना होगा। क्योंकि जिस स्तर से इसका संक्रमण फैल रहा है, किसी भी संयोगवश किसी भी व्यक्ति का नंबर आ सकता है। अतः धर्मचिंतन, तत्त्वविचार एवं आत्मबल की जितनी आवश्यकता हमें पहले थी, उससे कई-गुण आवश्यकता आज की परिस्थितियों में है।*
        मैं घबराने या पलायनवादी होने के लिये यह नहीं लिख रहा हूँ, बल्कि इन परिस्थितियों में धर्म एवं तत्त्वज्ञान को अपना सच्चा-संबल बनाने के लिये यह लेख लिख रहा हूँ।
      हमें इन परिस्थितियों में अनुकरणीय कुछ सुझाव निम्नानुसार हैं--

*1. रथ-प्रवर्तन, शिविर, विधान एवं इसतरह के भीड़ जुटाने आले कार्यक्रमों को तत्काल-प्रभाव से रोककर ऑनलाइन तत्त्वचर्चा के कार्यक्रमों को सर्वोच्च-वरीयता दी जाये।*

*2. साधर्मीजनों, संबंधियों से संपर्क बनाकर रखा जाये और यदि किसी के बारे में कोई ऐसी सूचना मिले, तो दूरभाष, संदेश देना तथा हरसंभव उपचार आदि का सहयोग करने का संकल्प हम सभी लेकर एकदूसरे का सहारा बनें।*
*3. यदि किसी साधर्मीजन के बारे में कोई ऐसी जानकारी मिले, तो उसके पास औषधि, फल, नारियल-पानी आदि की सुनिश्चितता करने के प्रति हम सभी सावधानी रखें। इस कार्य में यह विशेष ध्यान रखें कि सामनेवाले के आत्मसम्मान को रंचमात्र भी चोट पहुँचाये बिना हम यह सेवा/व्यवस्था सहर्ष करें।*

*4. संक्रमित-जन का मनोबल बढ़ाने के लिये उनके संपर्क में निरन्तर बने रहें और उन्हें आध्यात्मिक-तत्त्वज्ञान की चर्चा से उत्साहित करते रहें।*
*5. यदि किसी को किसीतरह की आर्थिक-सहयोग की आवश्यकता प्रतीत हो, तो सविनय, बिना किसी दिखावे के शालीनता एवं शिष्टाचार-पूर्वक उनको अपेक्षित-सहयोग प्रदान करके अपने धन का सदुपयोग करें।*
*6. यदि आपको कोई ऑनलाइन चर्चा, व्याख्यान, क्लिप, भजन, कविता, वीडियो, पीडीएफ आदि ऐसी प्रतीत हो, जिसको पढ़ने, सुनने, देखने से आपका मनोबल बढ़ता हो और आपके परिणाम सुदृढ़ होते हों, तो उनका परिचय देते हुये अपने परिजनों, परिचितों एवं साधर्मीजनों के पास उन्हें पहुँचायें, ताकि वे उन्हें अपना संबल बना सकें।*
*7. हम प्रतिदिन आत्मस्वरूप की अविनश्वरता, अक्षय-अनंतता, अनंत-गुणमयता आदि का जिनवाणी के आधार पर निरन्तर चिंतन-मनन एवं चर्चा करें। यह सर्वोत्तम-औषधि है इस महामारी की। क्योंकि मनोबल जिनका मजबूत है, वे इस संक्रमण से बहुत जल्दी उभर जाते हैं। साथ ही मजबूत मनोबलवालों को यह संक्रमण जल्दी पकड़ता नहीं है।*
 
*8. हम शुद्ध जैन-वधि का खानपान, एवं सात्त्विक-दिनचर्या को अपनायें। छना हुआ एवं प्रासुक-जल लें। ज़ंक-फूड का एवं बाजार के खाने का पूरी तरह परित्याग करें। रात्रिभोजन से बचें। क्रोधादि-विकारों को नियंत्रित रखते हुये हम शुगर, ब्लडप्रेशर आदि के असंतुलन से बचकर शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य उच्चतर बनाये रखें। (यद्यपि जैन-संस्कार को ये सब करने को कहना उनका अपमान करना है, क्योंकि वे तो पहले से ही ऐसा आचरण करते हैं। किन्तु वर्तमान परिस्थिति में कई लोग ऐसा नहीं कर पाते हैं, उनको लक्षित करके यह लिखा है।)*

*9. अनावश्यकरूप से भयभीत नहीं हों। सावधानी से ही इस संक्रमण से बचा जा सकता है। और यदि सावधानी के बाद भी इस संक्रमण की चपेट में आ जायें, तो भी यही हमारा सबसे बड़ा संबल एवं स्वास्थ्यवर्धक-पथ्य है। अतः इसके प्रति हम निरन्तर सावधान रहें।*
*10. एक बड़ी-जिम्मेदारी जिनमंदिरों में अनिवार्य प्रक्षाल-पूजन की विधि की निर्विघ्नता की भी है। कई जगहों पर लोगों ने पूरीतरह से ही तालाबंदी कर दी है, तो कई जगहों पर जबरन धक्कामुक्की एवं श्रद्धा के साथ रूढि के अतिरेक में संक्रमण फैलाया जा रहा है।लोग मंदिर जी में मास्क लगाकर नहीं जाते, हाथ-पैरों को अच्छी तरह से धोये बिना ही जल्दबाजी में देवदर्शन करने चले जाते हैं। आपस में दो गज की दूरी बनाकर दर्शनविधि करने पर तो ध्यान ही विरले लोग रखते हैं। ऊपर से यह भी बिडम्बना है कि जिनमंदिर जी में शालीनता से व्यवहार करने की जगह अहंवृत्ति से आचरण करना अधिकांश जैनों का संस्कार बना हुआ है। वे यदि कुछ गलत भी करते हैं, तो उसे भी सही ही मानते हैं और सही ठहराने के लिये बहस करने के लिये तैयार रहते हैं। श्रद्धा एवं विनय के साथ जिनदर्शन करना एवं पूजन-भक्ति करना विरले लोग ही करते हैं। अधिकांश तो रूढिवश हाथ जोड़ने, ढोक देने आदि की बाह्य-विनय तो दिखाते हैं, किन्तु अंतरंग में जिनमंदिर जी के अनुरूप अगाध-विनय, भक्ति एवं शालीनतापूर्ण-आचरण की मानसिकता बहुत कम लोगों में देखी जाती है।*
      *गन्धोदक के लिये जिद करना, घंटानाद का आग्रह रखना आदि कुछ प्रवृत्तियाँ भी समीक्षणीय हैं। जब गन्धोदक में सबके हाथ लगने से एवं घंटा को बजाते समय सबके छूने से इस संक्रमण की प्रचुर-संभावना होती है, तब इनके आग्रह से बचकर भी जिनेन्द्र देव की दर्शनविधि विनय एवं भक्तिपूर्वक की जा सकती है।*
      *इसीतरह बहुत-सी बातें हैं, जो इस संक्रमण-काल में हमें सावधानी पूर्वक अपनाने के योग्य हैं। मेरा सम्पूर्ण जैनसमाज से विनम्रतापूर्वक अनुरोध है कि अपने मन एवं आचरण को इतना शालीन, वैज्ञानिक एवं सद्भावपूर्ण बनायें कि इस संक्रमण-काल को हम शांति एवं सभी की सुरक्षा की सावधानीपूर्वक बितायें। जिनेन्द्र देव की विनय, भक्ति, पूजन, स्वाध्याय आदि की मांगलिक-विधियाँ अवश्य करें, किन्तु विवेक की प्रधानता रखें तथा भावविशुद्धि की सर्वोपरिता बनाये रखें। साथ ही, साधर्मी-वात्सल्य को सर्वाधिक-वरीयता देकर हम आपस में सहयोगी बनकर स्वयं इस संक्रमण से बच सकते हैं और दूसरों को भी बचने में सहयोगी बन सकते हैं।-- अतः ऐसा करने की मेरी आप सभी से विनती है।*
      *ध्यान रहे कि संक्रमण-काल बीत जाये, परन्तु हमें नहीं बीतना है-- ऐसा सावधानीपूर्वक आचरण हम करें तथा जिनधर्मानुसारी-सदाचरण करते हुये हम मंगलभावना करें कि यह संक्रमण-काल शीघ्र समाप्त हो तथा हम जिनाम्नाय के अनुसार अपने धर्मप्रभावना के कार्यों को गरिमापूर्वक पुनः संचालित कर सकें।*
        हम सब सुरक्षित रहें तथा वीतरागी-जिनधर्म हमारे आचार-विचार में केवल सुरक्षित ही नहीं, बल्कि संवर्धित भी रहे--इस मंगलभावना के साथ यह आलेख आप सभी सज्जनों के लिये प्रेषित है।

संपर्क दूरभाष : 8750332266
#####**********######

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

। वाक्-संयम का महत्त्व।।* (मननीय आलेखमाला) {पहली-किस्त}

अंतस् तिमिर को हर सके, वह दीप ज्योतित तुम करो* (मार्मिक हिन्दी-कविता)

*वीरस्स णिव्वुदि-दिणं हु सुहावहं णो* (प्राकृतभाषा-निबद्ध कविता)