*मेरे आराध्य कैसे हों?* (मननीय हिन्दी कविता) (दूसरी-किस्त)

 *मेरे आराध्य कैसे हों?*

(मननीय हिन्दी कविता)
(दूसरी-किस्त)
✍🏻 *प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली*

[ आज व्यक्ति अपने आराध्य चुनने में दिग्भ्रमित है। बाहरी-शिक्षा की उन्नत-उपाधियाँ लेकर भी वह आस्था के क्षेत्र में बिल्कुल अशिक्षित/अज्ञानी बना हुआ है। वास्तव में आस्था का पात्र कौन है और उसकी उपासना-विधि कैसी होनी चाहिये?-- इस दृष्टि से इस लंबी कविता का सूत्रपात हुआ है। जो क्रमशः आपकेे पास प्रेषित की जायेगी। आज की किस्त में वर्तमान परिस्थितियों की विभीषिका का सांकेतिक-वर्णन मात्र प्रस्तुत किया गया है।]

     
*तन-मन-धन सब ही लुटाये,*
    *पल्ले में बस भिक्षा ही आयी।*
*हमरी ज्ञानचेतना ने तब भी,*
        *चिरनिद्रा से नहिं ली अंगड़ाई।।21।।*

*ज्ञानी-गुरु का मिला सुयोग तब,*
    *उन्होंने मुझे झकझोर जगाया।*
*"जागो मोह-निद्रा से हे चेतन!*
      *तुम हो भगवन्"  कहकर बुलाया।।22।।*

*विस्मित होकर उन्हें निहारा,*
      *कि क्या वे मुझको बता रहे थे?*
*सदियों से किसी ने नहीं सुनाया,*
    *ऐसी गाथा वे मुझे सुना रहे थे।।23।।*

*व्यक्ति-पूजा में जीवन था बीता,*
      *स्वार्थ-साधन ही विनय-श्रेय था।*
*गुणाधान की नहीं सोच थी,*
      *भौतिक-सुख ही परम-प्रेय था।।24।।*

*जड़ता की चिन्ता थी व्यापी,*
    *चेतन को चिन्तन नहीं सुहाता।*
*निर्विकार-आराध्य समक्ष थे,*
      *भोग-विकार ही नित मन-भाता।।25।।*

*दर्शन नित करता मैं वीतराग के,*
      *किन्तु वीतरागता नहीं सुहायी।*
*हींग-वास थी भरी नासा-पुट में,*
      *तब केसर-गंध कहाँ से आती?।26।।*

*युगों-युगों का जड़ता तोड़कर,*
      *चैतन्य-नाद कर्णों में था गूँजा।*
*तुम सिद्धों के कुलदीपक हो,*
      *दैन्य-भाव क्यों चित में सूझा?।27।।*

*तुम हो प्रभु, प्रभुता को समझो,*
      *साक्षात् प्रभु-मुद्रा में परखो।*
*निःसंगी जब आराध्य तुम्हारे,*
      *तब परिग्रह में सुख क्यों निरखो?।28।।*

*भोगों की चिरस्थायी-वासना,*
      *तुम्हारे चित में जड़ता भरती।*
*यदि चैतन्य-दृष्टि नहिं की तो,*
      *विषय-वासना-वल्लरी फलती।।29।।*

*इसीलिये ज्ञायक-परिचय-बिन,*
      *जिन-दर्शन सफल नहीं होता है।*
*फल कैसे बिन-बोये मिलता?*
        *जो बोओगे वही तो फलता है।।29।।*

*जौहरी-द्वारे रत्न हैं मिलते,*
      *अरु कुँजड़े निकट सब्जी-भाजी।*
*किसके ग्राहक हो तुम सोचो,*
      *तभी जाओ तुम देहरी उसकी।।30।।*

*यदि चेतनता ही तुम्हें चाहिये,*
      *नहीं है इष्ट यह दमित-वासना।*
*तो वीतरागी-मुद्रा में निरखो,*
      *मात्र वीतरागता की उपासना।।31।।*
     
*ज्ञानी-गुरु से जब पा लिया,*
      *आराध्य का समुचित सद्-ज्ञान।*
*आराधना मेरी अब होगी सफल,*
      *यह दृढ़-विश्वास जागा महान्।।32।।*

*तब जिनमंदिर में था गया,*
      *जिनवर देखे मानो पहली-बार।*
*वीतरागता कहते हैं किसे?*
      *किसका करूँ मैं अब सत्कार?।33।।*

*आराध्य की आराधना तत्सम,*
    *ही होती है जिनशासन-माँहि।*
*परिणति में आराध्य-गुणों की,*
    *भावना नहीं, तो वह भक्ति नाहिं।।34।।*

*विरले ही जानें इस मर्म को,*
      *विरलों को ही जिनदर्शन मिलें।*
*विरले नरभव पाय करें भक्ति,*
      *विरलों को ही जिनदर्शन फलें।।35।।*

*निजदर्श पा हो सफल जिनदर्शन,*
      *जिनदर्श से भवि निजदर्श पाते।*
*इस विधि करें जो भव्य भक्ति,*
      *वे नहीं भवदधि में हैं गोते खाते।।36।।*

*जिनदेव को जो जानें द्रव्य से,*
    *पुनः गुण से अरु पर्याय से भी।*
*वे आत्मदर्शी बन निर्मोही बनते,*
      *लौटकर भव में नहिं आते कभी।।37।।*

*इस विधि भविजन भक्ति करते,*
      *स्वयं भगवान् बनने के लिये।*
*वे नेत्र मीलित करके ही नित,*
      *जिनदर्श सदा पाते निज-हिये।।38।।*

*भगवद्-गुणों को भजते हृदय में,*
      *भगवान् बनने की करें भावना।*
*इसविधि दूरी मिटे भगवान् से,*
      *लौटकर संसार में क्यों आवना?।39।।*

*जिनदेव नहिं कहते भक्त को,*
      *तुम कभी मेरी भक्ति को करो।*
*जिनरूप निरखो भाव पलटो,*
      *भगवन् बनो अरु भव से तरो।।40।।*
(क्रमशः, आगे जारी)
संपर्क दूरभाष : 8750332266
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