।। वाक्-संयम का महत्त्व।।* (मननीय आलेखमाला) {दूसरी-किस्त}

 *।। वाक्-संयम का महत्त्व।।*

        (मननीय आलेखमाला)
               {दूसरी-किस्त}
✍🏻 *प्रो. सुदीप कुमार जैन. नई दिल्ली*


    (अभी पहली-किस्त में आपने समसामयिक-परिस्थितियों में मुनिपदधारकों के वचनों की स्थिति के बारे में जाना। अब इस किस्त में मुनिधर्म में वचनों की गरिमापूर्ण-स्थिति के विषय में तथ्यात्मकरूप से जानकारी दी जायेगी।)

       जिनाम्नाय में भव्यजीव मुनिपद आत्महित के लिये अंगीकार करते हैं, परहित के लिये नहीं। इसीलिये उन्हें *"अहेरिव गणाद् भीताः"* अर्थात् भीड़भाड़ या जन-समुदाय से उसीतरह बचकर दूर रहनेवाला कहा गया है, जैसे कि शिष्टजन जहरीले नागों से बचकर दूर रहते हैं। ये सही है कि निर्ग्रन्थ-मुनिराज रागात्मक-भूमिका में कभी-कभी दूसरों को तत्त्वज्ञान के निमित्तभूत जिनवाणी के ग्रन्थों का व्याख्यान करते हैं। *किन्तु वे आगमानुसारी एवं हित-मित-प्रिय भाषासमिति की मर्यादा में मर्यादित-शब्दावली में ही करते हैं, यद्वा-तद्वा कुछ भी नहीं बोलते हैं। और बोलना या व्याख्यान देना उनकी चर्या का अनिवार्य-अंग है ही नहीं। तपःसाधना करना उनकी मुख्य-चर्या है और उसमें भी त्रिगुप्तियों का पालन करते हुये आत्मध्यान करना अथवा आत्मध्यान की अनुरूप अनुप्रेक्षाओं आदि का चिंतन-मनन करना उनकी वास्तविक-चर्या होती है। और वे उसी पर केन्द्रित रहते हैं।*
         इस विषय में आचार्य कहते हैं--
*"ये व्याख्यान्ति न शास्त्रम्,*
*न ददाति दीक्षादिकञ्च शिष्याणाम्।*
*कर्मोन्मूलन-शक्ताः,*
*ध्यानरतास्ते Sत्र साधवो ज्ञेयाः।।"*
         --( क्रियाकलाप, पृ. 143)
   अर्थात् *जो न तो शास्त्रों का व्याख्यान करते हैं, न ही शिष्यों को दीक्षा आदि देने में बहुत-रुचिवंत होते हैं। (इसप्रकार अपनी सम्पूर्ण-ऊर्जा को आत्म-केन्द्रित रखते हुये जो) कर्मों की निर्जरा करने में समर्थ हुये हैं, ऐसे आत्मध्यान में निरत/लगे हुये महापुरुषों को जिनाम्नाय में 'साधु' के रूप में जानना चाहिये।*

  इसी तथ्य की पुष्टि करते हुये आचार्य इन्द्रनन्दि लिखते हैं--
*"सर्व-द्वन्द्व-विनिर्मुक्तो,*
*व्याख्यानादि च वर्जयेत्।*
*विरक्तो मौनवान् ध्यानी,*
*साधुरित्यभिधीयते।।*                             --(इंद्रनन्दि-नीतिसार, 17)

    *वस्तुतः निर्ग्रन्थ-मुनिराज को अपना परिचय देने के लिये एवं अपनी चर्या को लोक में चरितार्थ करने के लिये व्याख्यान आदि देने की अपेक्षा ही नहीं होती है। उनकी अपरिग्रही निर्ग्रन्थ-मुद्रा, प्रशान्त-निःस्पृह व्यक्तित्व एवं आत्मोन्मुखी-वृत्ति ही लोक को उनके सम्पूर्ण-व्यक्तित्व से सुपरिचित कराते हुये उन्हें संसार-शरीर-भोगों की असारता सिखाती हुई इन सबसे विरक्त होकर आत्मध्यान रूप सच्चे-मोक्षमार्ग को सिखा देती है।*
          आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि इस तथ्य को शब्दायित करते हुये लिखते हैं--
      *"मूर्त्तमिव मोक्षमार्गमवाग्विसर्गं वपुषा निरूपयन्तम्"*
             --(सर्वार्थसिद्धि, पृ. 1)
       अर्थात् जो वाणी से एक अक्षर या विसर्ग (:) जितना उच्चारण या संकेत तक किये बिना जो अपनी निर्ग्रन्थ-मुद्रा मात्र से मोक्षमार्ग के वास्तविक-स्वरूप को समझाने में समर्थ हों, वे ही सच्चे दिगम्बर-मुनिराज हैं।

        इसप्रकार जिनाम्नाय में मुनिधर्म के धारी निर्ग्रन्थ-मुनिराजों को व्याख्यान देने आदि बाह्य-प्रवृत्तियों के प्रति अनुत्साहित करते हुये आत्महित की प्रमुखता से स्वावलंबी-आचरण करने की प्रेरणा दी गयी है। हम भलीभाँति जानते हैं कि वात्सल्य-पर्व 'श्रावणी-पूर्णिमा' के घटनाक्रम में आचार्य अकम्पन स्वामी ने दूसरों से चर्चा करने के इच्छुक श्रुतसागर-मुनिराज को प्रायश्चित के रूप में उसी वाद-स्थल पर अकेले खड़े होकर मौनवृत्ति से ध्यानस्थ होने की आज्ञा दी थी।

       परन्तु यह भी सत्य है कि *निर्ग्रन्थ-मुनिराजों ने न केवल टीकाओं आदि की रचना करके व्याख्या-साहित्य का निर्माण करते हुये लिखित में भी व्याख्यान किया है, बल्कि अनेकों प्रसंगों पर भव्यजनों को भी जिनवाणी का अमृतपान कराया है। इतना ही नहीं, जब कभी जिनधर्म के विद्वेषियों ने वीतरागी जिनधर्म को लांछित करने की चेष्टा की, तो हमारे समर्थ मुनिवरों ने आगम-युक्ति-तर्क आदि प्रमाणों को द्वारा सक्षम-रीति से उनके दुऱभिप्रायों का दो-टूक शैली में निराकरण करते हुये जिनधर्म की वैजयन्ती को नभमंडल में फहराया है।*
         *किन्तु उनकी वाग्मिता कैसी अद्भुत एवं लोकमंगलकारी होती थी-- इसका भी जैनाचार्यों ने स्पष्टरूप से निरूपण किया है, ताकि कोई 'वावदूक' (वाचाल) बनकर बोलने में ही मुनिधर्म की सार्थकता न मानने लगे और भाषासमिति, सत्यधर्म आदि से परिशुद्ध-वचनों का ही मर्यादितरूप में प्रयोग करे।*
          महाज्ञानी आचार्य भट्ट अकलंकदेव इस विषय में स्पष्ट-दिशानिर्देश करते हुये लिखते हैं--
      *" सम्मतो च लोकस्य विद्वत्ता-वक्तृत्व-महाकुलत्वादिभिः। अथवा विद्वान् वाग्मी महाकुलीन इति यो लोकस्य सम्मतः, स मनोज्ञः, तस्य ग्रहणं प्रवचनस्य लोके गौरवोत्पादन-हेतुत्वात्।"*                        --(तत्त्वार्थराजवार्तिक, 9/25/13)
       अर्थात् जिनवाणी का वक्ता/व्याख्यानकर्त्ता विद्वत्ता, वक्तृता/व्याख्यान-क्षमता एवं कुलीनता (के अनुरूप शिष्ट-शब्दावली) के कारण जो 'लोक-सम्मत' ( शिष्टजनों को स्वीकार्य हो), अथवा 'विद्वत्ता', 'वाग्मिता' एवं महाकुलीनता के कारण जो सर्व-लोक-सम्मत हो, वही 'मनोज्ञ'-साधु/मुनिराज हैं। उन्ही का 'वक्ता' के रूप में ग्रहण यहाँ इसलिये किया गया है, क्योंकि उनके वचन/व्याख्यान लोक में गौरव की उत्पत्ति के कारण होते हैं।
          (अभिप्राय स्पष्ट है कि *जो इन गुणों से विशिष्ट न हो अर्थात् न तो 'विद्वत्ता' से विभूषित हो, न ही सभाशास्त्र व शिष्टजनों के बीच बोलने की कला यानि 'वाग्मिता' उसे आती हो, और न ही 'कुलीन' हो अर्थात् उच्चकुलीन लोगों के बीच होनेवाले शिष्ट-व्यवहार एवं स्तरीय-शब्दावली से भी जो परिचित न हो-- वह भले ही मुनिपद पर हो, तो भी उसे व्याख्यान नहीं देना चाहिये।*
        -- *आचार्य भट्ट अकलंकदेव के इस निर्देश एवं मापदंड का आज कितने वक्ता मुनिपदधारक पालन कर रहे हैं? आप स्वयं विचारिये और निर्णय कीजिये कि क्या उनके व्याख्यान मुनिपद के योग्य हैं?*
          *वस्तुतः आप स्वयं अनुभव करेंगे कि इनके व्याख्यानों से न केवल मुनिपद की गरिमा नष्ट हो रही है, बल्कि जिनधर्म की प्रतिष्ठा-हानि भी हो रही है। और ऐसे वक्ताओं का समर्थन करके हम निर्ग्रन्थ-मुनिराजों की जिनवाणी में निर्दिष्ट गरिमा को घटाने में योगदान कर रहे हैं।*
       *आचार्य अकलंकदेव के अनुसार तो इन गुणों से रहित वक्ताओं को मंच/धर्मसभाओं से न तो बोलने देना चाहिये और न ही इनके व्याख्यान सुनकर इनकी किसी भी रूप में अनुमोदना करनी चाहिये।*)

        आगमवेत्ता आचार्य शिवार्य ने तो जिनधर्म का व्याख्यान करनेवाले मुनिवरों के और भी गुण बताये हैं---
*"ओजस्सी तेजस्सी, वच्चस्सी पहिद-कित्तियायरिओ।*
*सीहाणुओ य भणिदो, जिणेहिं उप्पीलगो णाम।।"*
       --(भगवती आराधना, 480)
       अर्थात् *जो 'ओजस्वी' हो, जिसकी वाणी ओजगुण-सम्पन्न हो; 'तेजस्वी' हो (अर्थात् शील एवं तपःसाधना का तेजोमय-आभामण्डल जिसके व्यक्तित्व में दीप्त हो); 'वचस्वी' हो (यानि जिसके वाचंयमिता के कारण वाणी की शालीनता के साथ-साथ वर्ण्य-विषय की गरिमा भी जिनकी अद्वितीय हो)-- इन सबके साथ जिसकी प्रथित-कीर्ति हो (यानि जिसकी वचन-गरिमा के कारण लोक में जिसकी प्रसिद्धि हो), जो सिंह के समान उग्र-पुरुषार्थी हो (न कि मृगवधू के समान परिस्थितियों से भयभीत होकर समर्पण करनेवाला) ; इन सब विशेषताओं के साथ-साथ जिसमें ऐसी प्रतिभायुक्त-प्रतिपादन-क्षमता हो कि श्रोताओं के मनःस्थित-शल्य के निवारण में समर्थ (उत्पीड़क) हो; वही मुनिराज व्याख्यान देने के लिये जिनाम्नाय में अधिकृत हैं-- यह जैन-संवैधानिक व्यवस्था है।*

   विचार करिये कि आज के व्याख्यान करनेवाले मुनिपद-धारकों में ऐसी विशेषतायें कहीं दृष्टिगोचर होतीं हैं क्या? यदि नहीं हैं, तो उसका एकमात्र कारण यही है कि उन्होंने जिनाम्नाय में प्रतिपादित वक्तृता के सिद्धांतों का अध्ययन एवं प्रशिक्षण प्राप्त किये बिना ही बोलना चालू कर दिया है। इसीकारण आज के वक्ताओं से सत्य का ज्ञान तो नाममात्र ही मिलता है, परन्तु विसंवाद ही विसंवाद प्रचुर-मात्रा में मिल जाते हैं।
       इसीलिये पहले जो निर्ग्रन्थ-मुनिराज होते थे, उनके दर्शन मात्र से लोग परम-तृप्ति का अनुभव करते हुये भी उनके वचनामृतों के श्रवण की अपार-उत्सुकता रखते थे। संस्कृत साहित्य के सुविख्यात महाकवि माघ ने ऐसे ही एक निर्ग्रन्थ-मुनिराज के दर्शन करने के बाद उनके वचनामृतों के श्रवण की अपनी अदम्य-भावना को इसप्रकार अभिव्यक्त किया है--
*"विलोकनेनैव तवामुना मुने!*
*कृतः कृतार्थोSस्मि निवर्हितांहसा।*
*तथापि शुश्रूषुरहं गरीयसी-*
*र्गिरोSथवा श्रेयसि को तृप्यते।।*
            --(शिशुपालवध, 1/29)
*अर्थ :--* हे मुनिवर! यद्यपि मैं आपके पापनाशक पवित्र-दर्शन से ही निःसंदेह कृतार्थ हो गया हूँ। तथापि मैं आपकी सारगर्भित-वाणी (धर्मोपदेश) सुनना चाहता हूँ। सत्य ही है कि अपने हित की प्राप्ति में कौन तृप्त हो सकता है?

     (यह चर्चा अभी आगे चलेगी, किन्तु किस्त बहुत लंबी न हो जाये, इस दृष्टि से इसे यहीं विश्रान्त कर रहा हूँ । अगली किस्त में इससे आगे के विषयों की चर्चा सप्रमाण-प्रस्तुत की जायेगी।)
              (क्रमशः, आगे जारी)
*संपर्क दूरभाष : 8750332266*
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