*महाज्ञानी-अप्रतिबुद्ध से अद्वितीय-प्रतिबुद्धता के अद्भुत-यात्री : इन्द्रभूति गौतम* (महत्त्वपूर्ण-शोध-आलेख)

 [(दीपावली के प्रसंग पर विशेष-प्रस्तुति]

*महाज्ञानी-अप्रतिबुद्ध से अद्वितीय-प्रतिबुद्धता के अद्भुत-यात्री : इन्द्रभूति गौतम*
      (महत्त्वपूर्ण-शोध-आलेख)
    ✍🏻 *प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली*
{यह आलेख मैंने लिखना तो शुरू इसी भावना के साथ किया था कि मैं इसे कल यानि भगवान् श्री महावीर स्वामी जी के निर्वाण-कल्याणक एवं इन्द्रभूति गौतम गणधर को केवलज्ञान प्राप्त होने की तिथि के दिन ही आपको पोस्ट कर सकूँगा । किन्तु परिस्थितिवश ऐसा संभव नहीं हो सका है। अतः आज इसे आपको पोस्ट कर रहा हूँ। कृपया मनोयोग से इसे पढ़िये और अपनी प्रतिक्रिया से मुझे अवश्य अवगत कराइये।}

        यह शीर्षक किसी बड़े-विरोधाभास का प्रतीक है, परन्तु विशिष्ट-सन्दर्भों को परिलक्षित रखें, तो इससे दृष्टिपटल से तिरोहित रहे कई महनीय-विषयों का रहस्योद्घाटन होता है। आइये, उन विशिष्ट-सन्दर्भों के साथ-साथ उन अदृष्ट-तथ्यों की मीमांसा भी समझें, जो हमारे विचारपटलों से ओझल रहे हैं।

       [विषय का विवेचन प्रारम्भ करूँ, उसके पहले कुछ तथ्यों को जान लेना अपेक्षित है। यह सही है कि आप में से कई सज्जन इन तथ्यों से परिचित होंगे, किन्तु मैं यह भी अच्छी तरह से जानता हूँ कि मेरा यह आलेख अन्य इसतरह के कई आलेखों की भाँति मेरे ब्रॉडकास्ट-ग्रुपों के सदस्यों के अलावा विश्वस्तर अन्य विचारकों एवं मनीषियों तक पहुँचेगा, जिनमें से कई पाठक इनसे अपरिचित हो सकते हैं, अतः यह प्रस्तुति अपेक्षित है।]

*तथ्य-क्रमांक 1:--*
         चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् श्री महावीर स्वामी के काल में वैदिक-परम्परा के भी कई बड़े पंडित थे, जिनमें सर्वश्रेष्ठ विद्वान् का नाम *इन्द्रभूति गौतम* था।
       *उस समय इनके पांडित्य एवं कर्मकांड की लोक में इतनी प्रतिष्ठा थी, कि बड़े-बड़े राजा व सामन्त इनकी विद्वत्ता का लाभ लेते थे व इनका सन्मान करके इन्हें प्रभूत-दक्षिणा देते थे। इनके साथ उस समय के 500 श्रेष्ठ एवं मेधावी-वेदाभ्यासी इनके शिष्यों के रूप में चौबीसों घंटे इनकी सेवा में तत्पर रहते थे। ये बहुत बड़े वाग्मी, भाषाविद्, कर्मकांड के विशेषज्ञ एवं वादी विद्वान् थे। अतः इन्हें मैंने 'महाज्ञानी' विशेषण प्रयोग किया है।*

*तथ्य-क्रमांक 2:--*
         *जिनाम्नाय के अनुसार जिसे जिनेन्द्र-प्रज्ञप्त वस्तु-व्यवस्था का ज्ञान न हो एवं आत्मतत्त्व की निर्मल-अनुभूतिरूप सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हुई हो, वह 'अप्रतिबुद्ध' अर्थात् अज्ञानी ही कहा गया है। क्योंकि जैनदर्शन में मात्र क्षयोपशमज्ञान पर आधारित पांडित्य को 'प्रज्ञा-परीषह' कहकर उपेक्षित किया गया है। 'आत्महित जिसने नहीं साधा, वह लोकहित भी वास्तव में नहीं कर सकता है'-- इस सिद्धान्त के आधार पर उसके समस्त पांडित्य को जैनदर्शन 'अज्ञान' ही मानता है।*
            जैनदर्शन की स्पष्ट-मान्यता है कि *"आत्मज्ञान ही ज्ञान है, शेष सभी अज्ञान"*। इसीकारण *अन्य सब बातों के प्रकांड-पंडित होते हुये भी इन्द्रभूति गौतम आत्मज्ञान एवं जिनेन्द्र-कथित तत्त्वज्ञान से नितान्त-अनभिज्ञ थे, अतएव उन्हें 'महाज्ञानी' के साथ 'अप्रतिबुद्ध' विशेषण भी शीर्षक में सुविचारित रूप से प्रयोग किया गया है।*

*तथ्य-क्रमांक 3:--*
       'अद्वितीय-प्रतिबुद्धता' का अभिप्राय बहुत गहरा है। यह लौकिक-पांडित्य की मानसिकता में समझ में नहीं आ सकता है। *इसके लिये हमें एक ओर 'केवली' और 'केवलज्ञान' को समझना होगा और दूसरी ओर हमें 'द्वादशांगी-श्रुत' को समझना होगा। इन दोनों के मध्यवर्ती जो होते हैं, उन्हें 'गणधर' कहा जाता है।*
           यहाँ महत्त्वपूर्ण-बात यह भी है कि इन दोनों के बारे में सामान्यजनों को मात्र टटोलकर जानने जितनी मोटी-जानकारी ही पता है, इनकी वास्तविकता का तो अनुमान लगाना भी सामान्यजनों को अत्यन्त-कठिन ही नहीं, असंभवप्रायः है। अतः इन दोनों पक्षों का संक्षिप्त, किन्तु सटीक-प्रतिपादन करने के बाद इनके मध्यवर्ती गणधरदेव के स्वरूप का स्पष्ट-आभास कराऊँगा, ताकि इस विशेषण का अर्थ स्पष्ट हो सके।

      पहला-पक्ष 'केवलज्ञान' का है। *'केवलज्ञान' अर्थात् आत्मा के ज्ञानगुण की वह परिणति, जो विश्व के अनन्त-जीवों, अनन्तानन्त-पुद्गलों, जीवों और पुद्गलों के क्षेत्र से क्षेत्रान्तरण के गमन एवं स्थिति के निर्धारक लोकाकाश-व्यापी धर्म और अधर्म-द्रव्यों, लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर विद्यमान सम्पूर्ण-परिणमनों के निर्धारक असंख्य-कालाणुओं, समस्त द्रव्यों के अवगाहनत्व के निर्धारक लोकालोक-व्यापी आकाश-द्रव्य के एक-एक प्रदेश को, उनमें से प्रत्येक के अनन्त-गुणों को, उन अनन्तानन्त-गुणों में प्रत्येक गुण के सर्वकालवर्ती-अनन्तानन्त-परिणमनों को युगपत् अत्यन्त निर्मलता/स्पष्टता के साथ प्रत्यक्ष जानने में समर्थ चैतन्य-परिणति का नाम 'केवलज्ञान' है। इतना ही नहीं, ऐसे अनन्त लोकालोक आ जायें, तो उन सबको भी केवलज्ञान की एक पर्याय बिना किसी अस्पष्टता के सहजतापूर्वक एक ही समय में प्रत्यक्ष जानने की सामर्थ्य रखती है।-- ऐसा तो केवलज्ञान का स्वरूप है।*
     इस केवलज्ञान के धनी होते हैं केवली-परमात्मा। *ऐसी केवलज्ञान की अनन्तानन्त-पर्यायें जिसमें से प्रतिसमय परिणत हों, तब भी जिसकी स्वाभाविक-सामर्थ्य में रंचमात्र भी न्यूनता/कमी न हो-- ऐसा 'ज्ञान' नामक गुण आत्मा का प्रतिनिधि-गुण है। और इस ज्ञान जैसे अनन्त-गुणों का निधान यह चैतन्य-तत्त्व आत्मा है।* इस केवलज्ञानरूप-परिणति से परिणत आत्मा को ही केवली कहा गया है।
         *इन केवलियों में जो सर्वजीवों के हित का करुणा-भावना से दिव्यध्वनि द्वारा वस्तु-स्वरूप का प्ररूपण करते हैं, उन्हें 'तीर्थंकर' कहा जाता है।*
         *इन तीर्थंकरों की 'दिव्यध्वनि' में समस्त-श्रोताओं की जिज्ञासाओं को अधिगत करके उन्हीं की भाषाओं में समाधान देने की अनिर्वचनीय-क्षमता विद्यमान होती है, तथापि यह जितना केवलज्ञान जानता है, दिव्यध्वनि उसका अनन्तवाँ-भाग ही प्रतिपादित कर पाती है।*
         क्योंकि *ज्ञान की जानन-सामर्थ्य तो अनन्त है, परन्तु ध्वनि की अभिव्यंजन-सामर्थ्य केवलज्ञान की तुलना में अनन्तवाँ-भाग मात्र है।*
       *चूँकि केवलज्ञान 'निरावरण' या 'क्षायिकज्ञान' है, अतः वह अपरिमित जान सकता है; किन्तु जो दिव्यध्वनि के श्रोतागण होते हैं, वे मुख्यतः सभी सावरण-क्षयोपशमज्ञान के धनी होते हैं; अतः केवली की अनन्तवाँ-भाग-सामर्थ्यवाली दिव्यध्वनि जितना प्रतिपादित कर पाती है, उसे कोई भी सावरण-ज्ञान यानि क्षयोपशम-ज्ञान का धनी जीव पूरा तो क्या, उसका एक-अंश भी ग्रहण नहीं कर पाता है।*
     किन्तु *क्षयोपशमज्ञान के धनियों में सर्वश्रेष्ठ-क्षमता के धनी तीर्थंकर-परमात्मा के प्रधान-शिष्य अर्थात् 'गणधर' ही होते हैं। वे मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्यय-- इन चार ज्ञानों के सर्वोत्कृष्ट-स्तर के धनी होते हैं। और वे भी तीर्थंकर-परमात्मा की दिव्यध्वनि का अनन्तवाँ-अंश ही ग्रहण कर पाते हैं-- यह एक तथ्य है।*

       दूसरे-पक्ष पर विचार करें, तो हम पाते हैं कि *गणधरदेव दिव्यध्वनि के जितने अंश को ग्रहण करते हैं, उसको जब वे शब्दायित करके वर्गीकृत करते हैं, तो उन्हें प्राप्त दिव्यध्वनि के अंश का भी अनन्तवाँ-भाग ही वे उसरूप में व्यवस्थित कर पाते हैं, जिसे हम 'द्वादशांगी-श्रुत' के रूप में जानते हैं। जबकि जिनवाणी के ग्रन्थों में जो द्वादशांगी-श्रुत का परिमाण एवं विस्तार वर्णित है, वह सामान्यजनों की कल्पना एवं गणना से परे प्रतीत होता है। इसी द्वादशांगी-श्रुत का अन्तर्मुहूर्त में पारायण 'श्रुतकेवली' करते हैं। अर्थात् श्रुतकेवली जितना द्वादशांगी-श्रुत के रूप में जानते हैं, गणधरदेव को उनसे अनन्तगुना-अधिकज्ञान दिव्यध्वनि के माध्यम से होता है।*
       यह सब सत्य एवं तथ्यात्मकरूप से प्रमाणित है और इस विषय में आप प्रायः जानते हैं। किन्तु इस आलेख का उद्देश्य मात्र यह जानकारी देना नहीं है, बल्कि उन तथ्यों की ओर ध्यानाकर्षण कराना है, जिन पर प्रायः हम लोग विचार ही नहीं करते हैं। उन तथ्यों का संक्षिप्त-विवरण निम्नानुसार है--

*1. विचार करिये कि जब भगवान् श्री महावीर स्वामी जी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ था, तभी से उनका समवसरण लग रहा था और उसकी बारह-सभाओं में कई श्रुतकेवली, चतुर्विध भावलिंगी-मुनिराज, आर्यिकायें, देशव्रती श्रावक-श्राविकायें, चतुर्निकाय-देवगण, सौ इन्द्र, अनेकविध सामान्य-श्रावक आदि विद्यमान रहते थे; जो कि भगवान् श्री महावीर स्वामी के न केवल अनुगामी-शिष्य थे, बल्कि विशुद्ध-आत्महित की भावना से उस समवसरण में उपस्थित थे।*
          और *इस स्थिति में एक-दो नहीं, बल्कि पूरे 66 दिन बीत गये थे। किन्तु उन अनन्य-भक्तों में किसी की ऐसी पात्रता नहीं पकी कि वे तीर्थंकर-प्रभु के 'गणधर' बन सकते।*
       दूसरी-ओर भगवान् श्री महावीर स्वामी के समवसरण में आने तक इन्द्रभूति गौतम को न तो जैन-तत्त्वज्ञान की पकड़ या जानकारी थी और न ही उन्होंने एक भी जैन-सिद्धांत समझा या स्वीकार किया था। तब उन्होंने ऐसा कौन-सा चमत्कार कर दिया था, जो वे श्रुतकेवलियों से भी कई गुना श्रेष्ठ-योग्यता के धनी 'गणधर' बन गये थे और वह भी तत्काल?
      *न तो उन्होंने जैन-सिद्धांतों को पढ़ने, सीखने या समझने में एक क्षण का भी समय लगाया और न ही किसी से जिनशासन के सिद्धांतों का अध्ययन किया था। तब उन्होंने बिना किसी शिक्षण या प्रशिक्षण के सर्वज्ञ-परमात्मा की दिव्यध्वनि सुनकर उसे आत्मसात् करने की क्षमता कब और कैसे विकसित की थी? कैसे क्षण भर में उनकी वैचारिक एवं श्रद्धानगत-पवित्रता इतनी अधिक हो गयी थी कि समवसरण की बारहों सभाओं में विद्यमान अभ्यासी-साधकों से कई गुना श्रेष्ठ बनकर 'गणधर' पद पर विभूषित हो गये थे?*-- यह प्रश्न बहुत ही गम्भीर है।

*2. क्या जैन-तत्त्वज्ञान के अध्ययन एवं प्रशिक्षण के बिना भी जैन-तत्त्वज्ञान के सर्वोत्तम-वक्ता 'तीर्थंकर-परमात्मा' की परम-अतिशय-रूप 'दिव्यध्वनि' के निमित्त बन गये, जो दिव्यध्वनि पिछले 66 दिनों से गणधर के अभाव में नहीं खिर रही थी, वह इन्द्रभूति गौतम जैसे जैन-तत्त्वज्ञान से अनभिज्ञ एवं अप्रशिक्षित-व्यक्ति के आते ही खिरने लगी थी। क्या क्षण भर पहले तक का गृहीत-मिथ्यात्वी जीव मात्र क्षयोपशम के उघाड़ के बल पर इतनी महती-योग्यता अर्जित कर सकता है? जैन-सिद्धांत क्या इससे सहमति प्रदान करता है?*-- यह बहुत बड़ा-प्रश्न है।

*3. क्या कुछ क्षण पहले का गृहीत-मिथ्यादृष्टि जीव कुछ ही पलों में निर्ग्रन्थ-मुद्रा अंगीकार करते हुये क्षायिक-सम्यग्दर्शन लेकर चार-ज्ञानों के सर्वोच्च-स्तर को प्राप्त करके तीर्थंकर-परमात्मा की धर्मसभा का नायक 'गणधर' बन सकता है? एकसाथ इतनी सारी योग्यतायें बिना किसी पूर्वाभ्यास या प्रशिक्षण के क्षण भर में प्रकट होनी संभव हैं?*
     -- ये सभी बेहद-गम्भीर प्रश्न हैं और इनका तथ्यात्मक-समाधान अपेक्षित है, कोरे भावावेश के उत्तर यहाँ अपेक्षित ही नहीं हैं। मैं अतिसंक्षेप में, किन्तु पूरीतरह से निर्भ्रान्तरूप से इन सभी का आगम-युक्त-सम्मत-समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास यहाँ करूँगा।

   *समाधान-क्रमांक 1 :--*
       *जैनदर्शन का मूलभूत-सिद्धांत है कि आत्मा परिपूर्ण ज्ञानस्वभावी है, क्षयोपशमज्ञान उसका स्वभाव नहीं है। निरावरण-ज्ञान ही उसका स्वभाव है। और निरावरण-ज्ञान हमेशा परिपूर्ण ही होता है, कभी अपूर्ण नहीं होता है। भले ही पर्याय में उसकी अभिव्यक्ति सीमित दिखे, किन्तु वह पर्याय में दिखने की ही बात है, आत्मा का स्वभाव वैसा सीमित नहीं है।*
          जैसे आकाश में सूर्य हमेशा पूरा ही प्रकाशित और प्रतापित रहता है। किन्तु हम तक कभी उसका प्रकाश और प्रताप प्रचंड रूप में मिलता है, तो कभी मेघाच्छन्न-दिशाओं या दक्षिणायन के कारण ये क्षीण रूप में मिलते हैं। किन्तु यह सूर्य का दोष नहीं है और न ही वह कभी धुँधला होता है। यह तो हमारी स्थिति जिस क्षेत्र में है, वहाँ के प्रकृति और पर्यावरण के प्रभाव से ऐसा होता है।
     जब आत्मा का ज्ञानस्वभाव सदा एकसमान है, तो उसे पहिचानने व अपनाने में कितना समय लगना है? यह तो दृष्टि के फेर की बात है। इसलिये *अप्रतिबुद्ध से प्रतिबुद्ध होना कोई समय-सापेक्षता की विवशता नहीं रखता है। जिस क्षण उस स्वभाव के सन्मुख हुये, उसी क्षण वह प्रकट है।*

*समाधान-क्रमांक 2 :--* आत्मा को आत्मा के स्वरूप को अपनाने में समय नहीं लगता है और न ही इसके लिये कोई ग्रन्थों से परिभाषायें रटनी पड़तीं हैं। वह तो स्वसंवेदन से मिलनेवाली उपलब्धि है, जो कि दृष्टि बदलने के साथ ही तत्क्षण प्राप्त होती है। इसमें न तो समय की पराधीनता होती है और न ही संयोगों को जुटाने की कोई अपेक्षा रहती है।
            इसीलिये *जिस क्षण इन्द्रभूति गौतम ने मोह की दृष्टि त्यागी और स्वरूप की दृष्टि अपनायी, उसी क्षण उन्हें अपना स्वरूप साक्षात्कृत हो गया था। अब महत्त्व था स्थिरता का एवं समर्पण का, तो इन्द्रभूति गौतम का उपयोग उत्कृष्ट-पुरुषार्थ के साथ अन्य पूर्व-उपस्थित तथाकथित-वरिष्ठजनों की तुलना में अधिक समर्पण के साथ बेहतर स्थिरता को प्राप्त हुआ था, इसीलिये वे उनसे बेहतर-उपलब्धि (गणधर-पद की पात्रता) को प्राप्त कर सके थे। इसमें समय-आधारित वरिष्ठता (सीनियरटी) का प्रश्न ही कहाँ उठता है।*
        क्या भरत चक्रवर्ती को अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान हुआ था और उनके पिताश्री तीर्थंकर ऋषभदेव को एक हजार वर्षों में, तो क्या इससे केवलज्ञान के स्वरूप में कुछ अन्तर पड़ा या कम या ज्यादा समय लगने से चक्रवर्ती भरत का केवलज्ञान श्रेष्ठ व तीर्थंकर ऋषभदेव स्वामी का कमतर रह गया था?-- जिनदर्शन का मर्म जिन्होंने समझा है और जिनाभिमत-वस्तु-व्यवस्था की समझ जिन्हें हैं, उन्हें ऐसी आशंका कभी भी नहीं हो सकती है।

      *समाधान क्रमांक 3:--*
          *क्रमबद्ध-पर्याय और केवलज्ञान के स्वरूप की समझ व श्रद्धान जिन्हें है, उन्हें किसी भी पर्याय की स्वतन्त्र-अभिव्यक्ति में कभी कोई आशंका या आश्चर्य नहीं होता है।* तो इन्द्रभूति गौतम स्वामी की पूर्वक्षणवर्ती-पर्याय एवं उत्तरक्षणवर्ती-पर्याय में जो स्वतंत्रता दिखी, उस पर आश्चर्य क्यों है?
         क्या आपने क्षणभर पहले के *शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है* -- इतने से वाक्य को स्मरण रखने में असफल रहे *शिवभूति-मुनिराज* के *तुस-मासं घोसंतो* वाले घटनाक्रम से उड़द की दाल उसके छिलके से भिन्न होती देखकर अपने स्वरूप में स्थिर होकर केवलज्ञानी होने में किसी को कोई आशंका है? वे भी तो क्षयोपशमज्ञान की दृष्टि से न्यूनतर-उघाड़वाले थे, तो अन्तर्मुहूर्त मात्र में केवलज्ञानी कैसे हो गये थे? स्वभाव की सामर्थ्य से या ज्ञानावरण का क्षयोपशम करके? अथवा शास्त्रों के सूत्र रटकर? *--ऐसी आशंकायें कभी जिनधर्म का मर्मज्ञ कर ही नहीं सकता है और जिसे आशंका हो, वह अभी जिनदर्शन को समझ ही नहीं सका है।*
      *जिनदर्शन 'समयापेक्षी-दर्शन' नहीं है, बल्कि 'स्वभावापेक्षी-दर्शन' है।*
       *इन्द्रभूति गौतम ने तब तक स्वभाव की आराधना की ही नहीं थी, इसलिये क्षयोपशम का उघाड़ बेहतर होते हुये भी वह आत्महित की दृष्टि से नितान्त-अप्रतिबुद्ध बने हुये थे और जिस क्षण स्वभाव का समर्पण जागा, तो गणधर की योग्यता उनकी सेवा में उपस्थित हो चुकी थी।*
      तब भी गणधर-पद पर क्यों अटके? सीधे केवली व सिद्ध क्यों नहीं बने? -- यह आप आपत्ति करते, तो समझ में आता। *उस स्थिति में उनका आत्म-स्वभाव तो तब भी परिपूर्ण ही था, किन्तु उनकी तन्मयता उतनी परिपूर्ण नहीं हो सकी थी, इसीलिये गणधर-पद पर तक ही आसीन हो सके थे।*
          किन्तु *उनकी वह तन्मयता अन्य पूर्वस्थ-साधकों की तुलना में बहुत-बेहतर थी, इसलिये वे तो गणधर बन गये*, किन्तु अन्यजन नहीं बन सके।-- *यह वस्तुस्भाव को आत्मसात् करने, पुरुषार्थ की प्रबलता एवं क्रमबद्धता की अद्भुत-युति का परिणाम था, जो कैवल्य से न्यून-स्थिति रही तथा अन्य साधकों की तुलना में बेहतर 'गणधर' पद की अर्हता उन्हें मिली।*
       इन्द्रभूति गौतम स्वामी के इस घटनाक्रम से हमें जैनदर्शन और तत्त्वज्ञान के मर्म का उद्घाटन, उसका दृढ-श्रद्धान एवं प्रत्येक परिणति की अनन्त-स्वतंत्रता का अवबोध होना चाहिये था, न कि ऐसी आशंकायें। ये आशंकायें हमें जैन होते हुये भी जिनाभिमत-वस्तु-व्यवस्था की समझ एवं तत्त्वज्ञान की दृष्टि की कमी को प्रकट करती हैं।
      कोई बात नहीं, इस प्रकरण के निमित्त से यदि हम जिनाभिमत-वस्तु-व्यवस्था एवं तत्त्वज्ञान के इन रहस्यों को समझ सके एवं निमित्ताधीन-दृष्टि को सुधार सके, तो इसे अप्रतिम-उपलब्धि मानिये। यही समझ हमें व आपको आत्मिक-पुरुषार्थ की न्यूनता दूर करने तथा क्रमबद्ध-पर्याय की दृढ़-निष्ठा जगाने का वह युगान्तरकारी-कार्य करेगी, जो हम अनादिकाल से आज तक नहीं कर सके हैं। परन्तु इसमें कर्तृत्वभाव के बिना सहज-स्वभाव की समझ ही सार्थक होगी-- यह स्मरण रखना चाहिये।
      संपर्क दूरभाष : 8750332266
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