*'स्टेच्यू'* *'प्रतिमा' और 'परमात्मा'* (लघु हिन्दी गद्य कविता)

 *'स्टेच्यू'* *'प्रतिमा' और 'परमात्मा'*

(लघु हिन्दी गद्य कविता)
   ✍🏻 *प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली*


कोई शिल्पी जब किसी पाषाण को,
अपने प्रातिभ-प्रयोग द्वारा
सधे हुये हाथों से
माननव-आकृति प्रदान करता है;
तो उसे 'स्टेच्यू' कहा जाता है।

पुनः जब वे ही हाथ
उसी पाषाण की मानव-आकृति को
भाव-भंगिमाओं को
आत्म-केन्द्रित दर्शाने में सफल होता है ;
तो उसे 'प्रतिमा' कहते हैं।

तथा उस प्रतिमा को देखकर
*जब कोई साधक स्वयं को ही*
*अन्तर्मुखी बनाने के लिये 'आदर्श' बना लेता है;*
*तो वही प्रतिमा 'परमात्मा' संज्ञा की पात्र बनती है।*

ध्यान रहे कि
'स्टेच्यू' चौराहों पर खड़े किये जाते हैं,
'प्रतिमायें' मंदिरों में वेदियों पर विराजमान होतीं हैं,
और *'परमात्मा' भक्तों की दृष्टि-पथ से होकर*
*हृदय के स्पन्दनों में स्पन्दित होने लगते हैं।*

परिणामस्वरूप
' स्टेच्यू' खुले आकाश के नीचे
सालभर धूल खाते हैं
और साल में एक बार ही
उनकी सुध ली जाती है,
सफाई होती है।

'प्रतिमाओं' को गरिमापूर्ण-वेदी पर
जरूरी प्रातिहार्यों के साथ विराजमान करके
प्रतिदिन प्रक्षालन-पूजन करके
उनकी विनय की जाती है।

और *'परमात्मा' तो भक्तों की*
*हृदय-वेदिकाओं पर*
*प्रतिक्षण वन्दित होकर*
*जीवन्तता को स्पन्दित करते हुये*
*'आराधक' को स्वयं 'आराध्य' बनने के*
*पथ पर अग्रसारित करते रहते हैं।*

पर-दृष्टि हमें
'स्टेच्यू' का पात्र बनाती है,
अन्तर्मुखी-आकृति हमें
'प्रतिमा' की तरह वन्दित बनाती है
और *आत्म-परिष्कार पूर्वक*
*स्वयं में परमात्मपना प्रकट करने की धग़स*
*हमें पाषाण में भी 'परमात्मा' दिखा देती है।*

'स्टेच्यू' मान-सम्मान के प्रतीक होते हैं,
'प्रतिमायें' पूजा-भक्ति की माध्यम बनतीं हैं
और *परमात्म-दृष्टि*
*हमें 'आराधक' से 'आराध्य' बनने की दिशा में*
*गतिशील करती है।*

क्या बनना है?
और किस दृष्टि को अपनाना है?
-- यह आपके विवेक पर निर्भर करता है।
*आपका विवेक ही आपके*
*भावी-व्यक्तित्व का निर्धारण करेगा।*
_[धग़स=लगन/धुन/संकल्प/समर्पित प्रयास]_
संपर्क दूरभाष : 8750332266
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