*यही क्या शिष्टाचार है?* (मार्मिक हिन्दी-कविता)
*यही क्या शिष्टाचार है?*
(मार्मिक हिन्दी-कविता)
*प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली*
*प्रिय साधर्मीजनों विचारो,*
*अन्तस् में तुम तनिक निहारो।*
*साधर्मी-वात्सल्य गृहस्थों का,*
*लोक में सबसे बड़ा सदाचार है।।*
*नहीं निभाये इसे जो कोई जन,*
*तो वह अनैतिकता का प्रसार है।*
*विषम-घड़ी में स्वधर्म तजे हो,*
*यही क्या तुम्हारा शिष्टाचार है?*
*धर्म-मार्ग के जो बड़े धुरन्धर,*
*बड़ी-संस्थाओं के जो कर्णधार।*
*जिनको शिशुवत् पाला था,*
*भय भी जिनका निराधार था।।*
*मात्र स्वार्थवश शिशु से नाते,*
*तोड़ जिन्होंने निज-स्वार्थ रक्षे।*
*क्या ये जिनशासन संरक्षक?*
*या क्षुद्र-स्वार्थों के हैं ये पोषक??*
*कल तक जो था नयन-दुलारा,*
*"मेरा राजा-बेटा" कहते न थकते।*
*आज जरा जो कमल-लक्ष्मी की,*
*प्राप्ति-बाध-भय तनिक न लखते।।*
*"नहीं जानता कभी इसे मैं" कहकर,*
*जिन्होंने तोड़ा है जन्म का नाता।*
*"नहीं कोई संबंध है इससे" कहकर,*
*स्वार्थों का कुत्सितरूप दिखाया।।*
*अरे! विचारो जो धर्मपुत्र से ऐसा,*
*व्यवहार करने में तनिक न चूके।*
*ऐसे हैं हमारे ये धरम-धुरन्धर,*
*जो दायित्वों का निर्वाह हैं भूले।।*
*इनको कौन कहे हैं ये हमारे,*
*संऱक्षक बनने के लायक हैं?*
*मंझधारों में हाथ छुड़ानेवाले,*
*ये मतलब के परिचारक हैं।।*
*अब तो इनकी असलियत जानो,*
*क्या ये तनिक नैतिकता धरते हैं?*
*अथवा अपने स्वार्थों की खातिर,*
*ही ये बच्चों को 'अपना' कहते हैं?*
*जब तक गैया के थनों में दूध था,*
*तब तक निचोड़ा घास खिलाकर।*
*मतलब पूरा होते ही घास छीन ली,*
*अरु घर से निकाला 'गैर' बताकर।।*
*ऐसे गो-भक्तों से तो वे अच्छे हैं,*
*जो गायों को नहीं कभी पालें।*
*फिर भी प्रतिदिन ग्रास खिलाकर,*
*उन्हें पुष्ट करें और पुण्य कमा लें।।*
*आज परीक्षा की घड़ी है आयी,*
*परखें कौन है अपना कौन पराया?*
*विषम-घड़ी में निज-हाथ छुड़ाकर,*
*पलायन करता वह नहीं है 'भाया'।।*
(भाया=भ्राता/भाई)
*अरे! विषम-परिस्थितियों में ही तो,*
*संबंधों को जग में परखा जाता है।*
*इस विधि में जो है खरा उतरता,*
*मात्र वही 'सगा-जन' कहलाता है।।*
*यों तो जगत् में सगा होता नहिं कोई,*
*स्वार्थों का है सगा संसार है ये सारा।*
*फिर भी स्वधर्मी से वात्सल्य निभा,*
*इसने समकित-अंगों में स्थान है पाया।।*
*सब मिल साधर्मी-वात्सल्य निभाओ,*
*जीवन में धर्म धरो, साधर्मी बचाओ।*
*यदि इतना भी कर न सके तो तुम,*
*कम से कम लिखकर 'पर' न जताओ।।*
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