*अपभ्रंश-सामयिक-पाठ* (आचार्य अमितगति-कृत 'सामयिक-पाठ' का अपभ्रंश-रूपान्तर)

 *अपभ्रंश-सामयिक-पाठ*

(आचार्य अमितगति-कृत 'सामयिक-पाठ' का अपभ्रंश-रूपान्तर)
*मूल-लेखक-- आचार्य अमितगति जी*
*अपभ्रंश-रूपान्तरण-- प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली*

*सत्तेसु मित्तिउ गुणिसु प्पमोदउ, 
किलिट्ठेसु जीवेसु किवापरत्तउ।
मज्झत्थभावउ विवरीदवित्तेसु, 
सया ममप्पम्मि विदहत्तु देवउ!! 1।।

*सरीरादउ कादुमणंतउ सत्तिउ, 
विहिण्णउ अप्पाणउ अपत्थदोसउ।
जिणिंदउ! कोसव्वउ खग्ग-लट्ठियउ, 
तुहुप्पसादेँ ममउ हवदु सत्तियउ।। 2।।

*दुक्खे सुहे वैरिसु बंधुवग्गे,
जोगे वियोग भवणे वणे वा।
णिरक्किदासेस-ममत्तबुद्धा,
समं मणो मेत्थु सदावि णाह!!3।।

*मुणीस! लीणम्मिव कीलिदे व,
थिरे णिखादम्मिव बिंबितम्मिव।
पादेसु तुवम्मि मम चिट्ठंतु सदा,
तमस्स णासे हिदये दीविगा मिव।।4।।

*एगिंदियादी जदि देव! देहिणो,
पमाददो संचरंतेण इदो तदो।
खदा विहिण्णा मिलिदा णिवीडिदा,
तमत्थु मिच्छा दुरणुट्ठिदंतदा।।5।।

*विमुत्ति-मग्ग-पडिकूल-वट्टिणो,
मया कसायक्ख-वसेण दुद्धिया।
चरित्त-सुद्धिस्स जमकिदं लोवणं,
तमत्थु मिच्छा मम दुक्किदं पहू!!6।।

*विणिंदणालोचण-गरिहेहिं अहं,
मणो-वयण-काय-कसाय-णिम्मिदं।
णिहम्मि पावं भव-दुक्ख-कारणं,
भेसज-विसं मंत-गुणेहि वाहिलं।।7।।

*अदिक्कमं जं विमद-वदिक्कमं,
जिणादिचारं सुचरित्तकम्मस्स।
ववधाणमणाचारमवि पमाददो,
पडिक्कमण तस्स करेमि सुद्धीए।।8।।

*खदिं मणस्सुद्धि-विहीए विलंघणं,
वदिक्कमं सील-विहीए विलंघणं ।
पहू! अदिचारं विसयेसु वट्टणं,
वदंति अणाचारमिहादिसत्ततं।।9।।

*जदत्थ-मत्ता-पद-वक्क-हीणं,
मया पमादा जदि किंपि उत्तं।
तं मे खमित्ता विदहादु देवी!
सरस्सदी केवलबोध-लद्धिं।।10।।

*बोही समाही परिणामसुद्धी,
सगप्पलद्धी सिव-सोक्ख-सिद्धी।
चिंतामणि चिंतिद-वत्थु-दाणे,
तुमं वंदमाणस्स ममत्थु देवि!!11।।

*जो सुमिरदे सव्व-मुणिंदविंदेहि,
जो थुव्वदे सव्व-णरामरिंदेहि।
जो गीयदे वेद-पुराण-सत्थेहि,
सो देवदेवो हिदये ममत्थु।।12।।

*जो दंसण-णाण-सुह-सहावो,
समत्थ-संसार-विकार-बाहिरो।
समाधिगम्मो परमप्प-सण्णो,
सो देवदेवो हिदये ममत्थु।।13।।

*णिसूददे जो भव-दुक्ख-जालं,
णिरिक्खदे जो जगस्सन्तरालं।
जो अंतगडो जोगि-णिरिक्खणिज्जो,
सो देवदेवो हिदये ममत्थु।।14।।

*विमुत्ति-मग्ग-पडिवादगो जो,
जो जम्म-मिच्चू-विसणा अदीदो।
तिलोग-लोगी वियलोSकलंको,
सो देवदेवो हिदये ममत्थु।।15।।

*कोडीकिदासेस-सरीर-वग्गा,
रागादी जस्स ण संति दोसा।
णिरिंदियो णाणमयोणवायो,
सो देवदेवो हिदये ममत्थु।।16।।

*जो वावडो विस्स-जणाणवित्तीए,
सिद्धों विबुद्धो धुद-कम्म-बंधो।
झादा झुणीदो सयलं विगारं,
सो देवदेवो हिदये ममत्थु।।17।।

*जो फुस्सदे कम्म-कलंक-दोसेहि,
जो अंध-संघेहि मिव तिग्ग-रस्सी।
णिरंजणं णिच्चमणेगमेगं,
तं देवमत्तं सरणं गमिस्सं।।18।।

*विहासदि जत्थ मरीचि-माली,
ण विज्जमाणे भुवणावहासी।
सगप्पट्ठिदं बोधमयं पगासं,
तं देवमत्तं सरणं गमिस्सं।।19।।

*विलुक्कमाणे सइ जत्थ विस्सं,
विदीसदे पप्फुडमिदं विवित्तं।
सुद्धं सिवं संतमणादि-णंतं,
तं देवमत्तं शरणं गमिस्सं।।20।।

*जेण खिदा वम्मह-माण-मुच्छा,
विसाद-णिद्दा-भय-सोग-चिंता।
णट्ठो अणलेणव्व तरुप्पपंचो,
तं देवमत्तं शरणं गमिस्सं।।21।।

*ण संथरो पत्थर-तिणं ण मेदिणी,
विहाणदो णो फलहो विणिम्मिदो।
जदो णिरत्थक्ख-कसाय-विद्दिसो,
सुहीहि अप्पा हि सुणिम्मलो मदो।।22।।

*ण संथरो भद्द! समाहि-साहणं,
ण लोग-पूजा ण य संघ-मेलणं।
जदो तदोSज्झप्परदो होहि अणिसं,
विमुक्क सव्वमवि बाहिर-वासणं।।23।।

*ण संति बाहिरा मम किंचि अत्था,
होहिमि तेसिं ण कदाचणं वि अहं।
इत्थं विणिच्छिय विमुच्च बाहिरं,
सत्थो सदा तुमं होदु भद्द! मुत्तीए।।24।।

*अप्पाणमप्पम्हि अवलोक्कमाणो,
तुम्हें दंसण-णाणमयो विसुद्धो।
एकग्गचित्तो खलु जत्थ तत्थ,
ठिदोSवि साहू लहदि समाहिं।।25।।

*एगो सदा सासदिगो ममप्पा,
विणिम्मलो साहिगमो सहावो।
बाहिरहवो संति अवरे समत्था,
ण सासदा कम्मभवा सगीया।।26।।

*जस्सत्थि णेक्कं देहेण वि सद्धिं,
तस्सत्थि किं पुत्त-कलत्त-मित्तेहि।
पुधक्किदे चम्मे लोमकूवा,
कुदो हि संठंति सरीर-मज्झे?27।।

*संजोगदो दुक्खमणेग-भेदं,
जदो भुंजदे जम्मवणे सरीरी।
तदो तिधा सो परिवज्जणिज्जो,
...... णिव्वुदी अत्तणीणं।।28।।

सव्वं णिराकिच्च विकप्पजालं,
संसार-कंतार-णिवाद-हेदुं।
विवित्तमप्पाणमवेक्खमाणो,
णिलीयसे(?) तुमं परमप्प-तच्चे।।29।।

सयंकिदं कम्म जमप्पणा पुरा,
फलं तस्सेव लहदि सुहीसुहं।
परेण दत्तं जदि लहदि फुडं,
सयंकिदं कम्मं णिरत्थगं तदा।।30।।

णियज्जिदं कम्म विवज्ज देहिणो,
ण कोवि कस्सावि देदि किंचण।
वियारमाणो एवमणण्णमाणसो,
प्रो देदि त्ति विमुंचदु सेमुसिं/बुद्धि।।31।।

जेहिं परमप्पा अमिदगदि-वंदणीयो,
सव्वादु विवित्तो बहुसो अणवज्जो।
सासदमधीदो मणे लहंति,
मुत्तीए णिवासं विहव-वरं दे।।32।।

इदि बत्तीसाए वित्तेहिं,
परमप्पाणं पेक्खदि।
जो अणण्ण-गद-चित्तो,
जादि सो पदमव्वयं।।33।।

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