*अप्रतिम-व्यक्तित्व के धनी : विद्वद्वरेण्य पं. बाबूभाई जी मेहता* (मननीय-परिचयात्मक-लेखमाला) {तीसरी-किस्त}

 *अप्रतिम-व्यक्तित्व के धनी : विद्वद्वरेण्य पं. बाबूभाई जी मेहता*

(मननीय-परिचयात्मक-लेखमाला)
        {तीसरी-किस्त} 
✍🏻 *प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली*

  *धर्मचक्र-रथ का प्रवर्तन*
       जब सोनगढ़ में 'परमागम-मन्दिर' का सन् 1975 ई. में भव्य 'पंचकल्याणक-प्रतिष्ठा-महोत्सव' का आयोजन हुआ, तब उसमें 'प्राचीन भारतवर्षीय दिगम्बर-जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी' की ओर से प्रतिनिधि के रूप में जैनसमाज की तीन महान्-विभूतियों को सम्मिलित होने भेजा गया था। वे थे-- *ब्र. श्री माणितचंद्र जी चंवरे (तात्या सा.), ब्र. गजाबहिन जी कुंभोज बाहुबलि, एवं पं. माणितचंद्र जी भिसीकर।* इन महानुभावों ने उस भव्य-समारोह के अन्तर्गत यह भावना व्यक्त की कि "मुमुक्षु-जगत् की ओर से दिगम्बर-जैन-समाज से सामंजस्यपूर्ण-भावना को विकसित करने के लिये 'प्राचीन तीर्थक्षेत्र कमेटी' को इस समारोह की ओर से पाँच लाख रुपयों की राशि सहयोग-स्वरूप दी जाये।"
    सुझाव अच्छा था, किन्तु उस समय प्राचीन तीर्थक्षेत्र-कमेटी के पदाधिकारियों के कार्यकलापों के कारण उसकी छवि जैनसमाज में धूमिल हो रही थी। तीर्थों की सुरक्षा एवं जीर्णोद्धार के कार्यों के लिये धन का अभाव बताया जाता था और कमेटी के पदाधिकारियों के आफिसों को वातानुकूलित बनाने के लिये धनाभाव आड़े नहीं आता था। ऐसे और भी कई कारण थे कि तत्कालीन तीर्थक्षेत्र-कमेटी पर समाज का विश्वास क्षीण होता जा रहा था। अतः पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर के संस्थापक एवं पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के अनन्यभक्त *श्रीमान् सेठ पूरणचंद जी गोदिका* आदि ने इस कार्य के लिये सहमति व्यक्त नहीं की। बल्कि एक अच्छा प्रस्ताव यह आया कि "जब वर्तमान तीर्थक्षेत्र-कमेटी अपने दायित्व को सही ढंग से संभाल ही नहीं पा रही है, तो क्यों न हमारे इन तीर्थों की सुरक्षा एवं जीर्णोद्धार के लिये मुमुक्षु-जगत् की ओर से एक कर्त्तव्य-निष्ठ तीर्थक्षेत्र कमेटी का गठन किया जाये।"
        इस प्रस्ताव पर गम्भीरता पूर्वक विचार-विमर्श करके यह बात *पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी* के समक्ष प्रस्तुत की गयी। उनकी सहमति मिलते ही उसी समय *'कुन्दकुन्द कहान दि. जैन तीर्थसुरक्षा ट्रस्ट'* के गठन का संकल्प पारित किया गया और उसी समय गोदिका जी ने एक लाख रुपयों की पहली दानराशि अपनी ओर से इस ट्रस्ट के लिये प्रदान की। उनके बाद तभी अनेकों धर्मनिष्ठ दानवीर श्रेष्ठियों ने भी मुक्तहस्त से दानराशियाँ देकर इसकी स्थापना सुनिश्चित की। इसप्रकार 'कुन्दकुन्द कहान तीर्थसुरक्षा ट्रस्ट' का गठन इस 'पंचकल्याणक-प्रतिष्ठा-महोत्सव' में हुआ। और *इसके संस्थापक-अध्यक्ष विद्वद्वरेण्य पं. बाबूभाई जी मेहता को ही सर्वसम्मति से चुना गया।*
      तब सबसे बड़ी-समस्या इसके लिये अपेक्षित धन-संग्रह की थी, क्योंकि तीर्थों की सुरक्षा और अपेक्षित व्यवस्थाओं के लिये पर्याप्त-धनराशि की अपेक्षा होती है। किन्तु इस ट्रस्ट में आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी का नाम आचार्य कुन्दकुन्द देव के नाम के साथ जुड़ा होने के कारण समाज के विरोधी-मानसिकतावाले जनों ने इसे *'सोनगढ़ियों का ट्रस्ट / कानजी स्वामी का ट्रस्ट'* जैसे नाम दिये और धुँआधार दुष्प्रचार करके समाज के सरल-मनवाले लोगों के मस्तिष्क में यह बात बिठाना शुरू कर दी, कि *"ये सब सोनगढ़ी-लोग मूलतः स्थानकवासी-श्वेतांबर हैं, ये न तो मूर्ति को पूजते हैं और न ही पूजा-प्रक्षाल आदि को धर्मविधि मानते हैं। ये हमारे तीर्थों पर कब्जा करके इन्हें श्वेतांबर-तीर्थ बनायेंगे, इसलिये इनके इस ट्रस्ट को एक पैसा भी दान नहीं देना। इतना ही नहीं, इनके ट्रस्ट से अपने दिगम्बर-जैन तीर्थों की सुरक्षा और जीर्णोद्धार के नाम पर एक पैसे की भी मदद नहीं लेना है। ये थोड़ा-सा पैसा देकर आपके तीर्थों पर कब्जा करने का छल करेंगे। इसलिये इन्हें अपने तीर्थों पर घुसने तक नहीं देना है।"*
    ऐसी विषम-परिस्थितियों में इस ट्रस्ट की सार्थकता कैसे सिद्ध हो सकती थी? *भले ही आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के अनन्य-अनुयायी इस ट्रस्ट की आर्थिक-अपेक्षाओं को अपने योगदानों से किसी सीमा तक पूरा कर भी देते, किन्तु उस धन-संग्रह की क्या सार्थकता रहती? क्योंकि जिन तीर्थों की सुरक्षा एवं जीर्णोद्धार के लिये इस ट्रस्ट का गठन किया गया था, वे सारे के सारे तीर्थ दिगम्बर-जैन-समाज के उस वर्ग के आधिपत्य में थे, जो अपने को आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी एवं उनके द्वारा प्रवर्तित आचार्य कुन्दकुन्द देव आदि आचार्यों एवं मनीषियों के आध्यात्मिक-तत्त्वज्ञान तक के धुर-विरोधी थे। यहाँ तक कि समाज के लगभग समस्त मुनिपद-धारकों का भी समर्थन उन्हें प्राप्त था।*
        वे लोग सोनगढ़ की आध्यात्मिकता से अनुप्राणित शुद्ध-आम्नायी मुमुक्षु-जगत् के लोगों के लिये *सदाचार-विहीन, स्वच्छन्दी, धार्मिक-क्रियाओं को नहीं माननेवाले, कोरी आत्मा-आत्मा की बातें करनेवाले* जैसे विशेषणों से विभूषित करते थे। इन्हीं पूर्वाग्रही-प्रचारों व कपोल-कल्पित-आरोपों के कारण से सम्पूर्ण दिगम्बर-जैन-समाज में मुमुक्षु-जनों के एवं इस ट्रस्ट के विरोध में माहौल बना हुआ था।
        नौबत यहाँ तक आ पहुँची थी कि *मुमुक्षु-विरोधी-संस्थानों के प्रमुखों के द्वारा सुनियोजितरूप से मुमुक्षु-विद्वानों एवं कार्यकर्ताओं पर जगह-जगह पर हमले भी कराये गये, ताकि उनका मनोबल तोड़ा जा सके और उन्हें हतोत्साहित करके इस ट्रस्ट के निर्माण एवं गतिविधियों के संचालन से विमुख किया जा सके।*
      और विशेष-बात यह थी कि ललितपुर की भावुक-समाज के लोग इनके बहकावे में आ गये और यहाँ का सामाजिक-वातावरण अत्यधिक-विषाक्त हो चुका था। ऐसे वातावरण में यह लगभग असंभव-कार्य प्रतीत हो रहा था कि ललितपुर में 'कुन्दकुन्द कहान तीर्थसुरक्षा ट्रस्ट' के बारे में चर्चा तक की जाये, तब इसके लिये समाजजनों से धन-संग्रह करने की बात तो लगभग कष्ट-कल्पना ही बनी हुई थी।
      ऐसी विषम-परिस्थितियों में मुमुक्षु-जगत् के शीर्ष-कर्णधारों ने सम्पूर्ण दिगम्बर-जैन-समाज के लोगों में इस ट्रस्ट के उद्देश्यों व कार्यों के प्रति विश्वास जगाने एवं उनसे इस ट्रस्ट के लिये दानराशि एकत्रित करने की हिम्मत कोई भी नहीं जुटा पा रहा था।
        तब इसके समाधान के लिये *'तीर्थसुरक्षा' के लक्ष्य की पवित्रता को पूरी दिगम्बर-जैन समाज में समझाने के लिये 'भगवान् श्री महावीर स्वामी के 2500 वें निर्वाण-महोत्सव' के सुअवसर पर भगवान् महावीर स्वामी के 'धर्मचक्र-रथ' के प्रवर्तन का संकल्प लिया गया।*
        किन्तु *इसके नेतृत्व के लिये  जैनसमाज में किसी सर्वमान्य-व्यक्तित्व के चयन की समस्या थी। क्योंकि मुमुक्षु-विरोधी एवं अनर्गल-प्रचार से उत्पन्न-मानसिकता ने  मुमुक्षु-विद्वानों के प्रति इतर-दिगम्बर-जैन-समाज के मन में मुमुक्षु-जगत् के प्रति जो अस्पृश्यता की भावना व्याप्त कर दी थी, उस स्थिति में इस 'धर्मचक्ररथ-प्रवर्तन' के नेतृत्व का 'काँटों का ताज' पहिनने को कोई तैयार ही नहीं था।*
        *स्पष्ट-शब्दों में कहा जाये, तो किसी में यह साहस ही नहीं था कि इस दायित्व को लेकर समाज के बीच जाये। बहुत सोच-विचार करने के बाद सबके मन में एक ही नाम इस गुरुतर-दायित्व के लिये सर्वाधिक-उपयुक्त समझ में आया था और वह नाम था विद्वद्वरेण्य पं. बाबूभाई जी मेहता, फतेहपुर-मोटा वालों का। क्योंकि वे मुमुक्षु-जगत् में तो सर्वमान्य थे ही, साथ ही मुमुक्षुओं के विरोधीजनों में भी वे मुमुक्षु-जगत् से अधिक-सर्वमान्य एवं समादृत थे। वे न केवल इन विरोधियों के बीच सुप्रतिष्ठित थे, बल्कि एकमात्र ऐसे मुमुक्षु-विद्वान् थे, जिनकी बात का विरोध उनकी उपस्थिति में करने का साहस बड़े से बड़े मुमुक्षु-विरोधी में भी नहीं था।*
      *ऐसा नहीं था कि उससमय मुमुक्षु-जगत् में विद्वानों का अभाव था। एक से बढ़कर एक तत्त्वाभ्यासी मुमुक्षु-विद्वान् उस समय अपने योगदानों से तत्त्व-प्रभावना कर रहे थे। इनमें स्वनामधन्य एडवोकेट पं. रामजी भाई माणेकचंद दोशी सोनगढ़, पं. श्री खीमजी भाईसोनगढ़, पं. श्री लालचंद भाई अमरचंद जी मोदी राजकोट, बाबू श्री जुगलकिशोर जी 'युगल' कोटा, प्रतिष्ठाचार्य पं. धन्नालाल जी ग्वालियर, कविवर राजमल जी पवैया भोपाल, डॉ. हुकमचंद जी भारिल्ल एवं पं. रतनचंद जी भारिल्ल जयपुर आदि मुमुक्षु-विद्वान् तो थे ही; साथ ही जैनसमाज के सिरमौर-विद्वानों में पं. फूलचंद जी सिद्धान्ताचार्य वाराणसी, पं. जगनमोहन लाल जी कटनी, पं. नरेन्द्र कुमार जी भिसीकर सोलापुर, पं. बंशीधर जी सा. न्यायाचार्य आदि अनेकों ऐसे विद्वान् भी थे, जो आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के विचारों से सहमति रखते थे और आवश्यकतानुसार स्पष्ट-शब्दों में उनके कथनों की जिनागम-मूलकता भी ज्ञापित करते हुये उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते थे।*
        परन्तु *उस विषम-स्थिति में मुमुक्षु-जगत् के महत्त्वपूर्ण-अभियान 'तीर्थवंदना-रथ' का नेतृत्व संभालने की स्थिति में कोई भी नहीं था। क्योंकि देशभर के विविध-मानसिकताओं वाले दिगम्बर-जैन-समाज में यदि कोई सर्वमान्य प्रतीत हुये, तो वे एकमात्र विद्वद्वरेण्य पं. बाबूभाई जी चुन्नीलाल जी मेहता ही थे। उस समय की समस्त दिगम्बर-जैन-समाज एवं मुमुक्षु-जगत् में अप्रतिम-व्यक्तित्व के रूप में यह उनकी अनभिषिक्त-नेतृत्व (बिना राज्याभिषेक के राजा) के रूप में स्पष्ट-स्वीकृति थी।*
          *वे यद्यपि लोकैषणा से अप्रभावित रहनेवाले आध्यात्मिक-व्यक्तित्व के धनी थे, फिर भी समाजसेवा एवं तत्त्वज्ञान की प्रभावना में वे सदैव अग्रणी होकर समर्पित रहे। उनका साधर्मी-वात्सल्य अतुलनीय था। वे किसी से अपना स्वागत-सत्कार कराना पसंद नहीं करते थे और अत्यन्त-सरल-प्रकृति के थे। फिर भी यदि समाज के सभी वर्गों के लोग उनका धूमधाम से स्वागत एवं बहुमान करते थे, तो 'वह पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के तत्त्वज्ञान का बहुमान एवं लोकमान्यता है'-- ऐसा मानकर विनम्रता से उसे स्वीकार करते थे; क्योंकि उनका गहन-भाव था कि सारी समाज पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के द्वारा उद्घाटित जिनधर्म के मर्म को जाने, सुने और उसका व उसे सुनानेवालों का स्वतः ही बहुमान करे।*
      *मुमुक्षु-जगत् में उनके मुकाबले कर्मठ, न्यूनतम-सुविधाओं में अधिकतम समर्पित होकर काम करनेवाले व्यक्तित्व उस समय भी दुर्लभ थे, आज तो उन जैसा विद्वान्, उन जैसा कार्यकर्त्ता, उन जैसा प्रबन्धक और उन जैसा पुण्यात्मा एवं सदाचार-निष्ठ-विद्वान् मिलना बहुत ही दुर्लभ था। वे अथक-योद्धा के समान अत्यन्त-ऊर्जस्वित (डॉयनमिक) व्यक्तित्व के धनी थे और उन्होंने शारीरिक-थकान, ऊब या अन्य किसी भी तरह का विकल्प मन में लाये बिना दिन-रात जुटकर संकल्प की पूर्ति तक काम में संलग्न रहना-- यह उनके व्यक्तित्व की बड़ी-खूबियाँ थीं। इसीलिये उनके अलावा अन्य किसी नाम पर विचार तक नहीं किया गया और उन्हीं के नेतृत्व में 'धर्मचक्र-रथ' का प्रवर्तन करते हुये नवगठित 'कुन्दकुन्द कहान तीर्थसुरक्षा ट्रस्ट' के लिये अपेक्षित दानराशि एकत्रित करने एवं सम्पूर्ण जैनसमाज को इससे जोड़ने का सर्वसम्मत-निर्णय लिया गया।*

    *उनके तेजस्वी-व्यक्तित्व, ओजस्वी-वाणी, मनस्वी-कार्यशैली एवं संयमित-आदर्श-जीवन का सम्पूर्ण-समाज पर प्रभाव भी ऐसा था कि मुमुक्षु तो मुमुक्षु, अन्य विरोधी भी सभी उनके सामने नतमस्तक रहते थे।*
      यद्यपि पं. बाबूभाई जी मेहता के नेतृत्व में 'धर्मचक्र-रथ' का ललितपुर में धूमधाम से प्रवर्तन हो-- यह संकल्प तो ले लिया गया था ; परन्तु विरोधियों के मुखियाओं ने भी इसे बड़ी-चुनौती के रूप में लिया था और कई दिनों पहले से ही इसके विरोध में समाज को मोड़ने का सुनियोजित कार्यक्रम चलाया गया। पं. बाबूभाई जी को इन सब बातों की पूरी जानकारी मिल रही थी, फिर भी वे तनिक भी विचलित हुये बिना सहजता से पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ललितपुर में 'धर्मचक्र-रथ' लेकर पधारे। ललितपुर में पदार्पण के समय की पूर्व-स्थिति कैसी थी और पं. बाबूभाई जी के नेतृत्व में 'धर्मचक्र-रथ' के आगमन पर कैसी स्थिति रही और ललितपुर में इस रथ के प्रवर्तन का कार्यक्रम कैसा रहा? उसकी प्रमुख-उपलब्धियाँ क्या रहीं?-- इन सबका वर्णन मैं आगामी-किस्त में करूँगा।
     
(क्रमशः, आगे जारी)
संपर्क दूरभाष : 8750332266
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