वाक्-संयम का महत्त्व।।* (मननीय आलेखमाला) {तीसरी-किस्त}

 । वाक्-संयम का महत्त्व।।*

              (मननीय आलेखमाला)
               {तीसरी-किस्त}
     *प्रो. सुदीप कुमार जैन. नई दिल्ली*

      [पहली किस्त तक आपने वर्तमान के मुनिपदधारक व्याख्यानकर्ताओं की विसंगतियों की अतिसंक्षिप्त एवं मर्यादित-शब्दों में आगमानुसारी-समीक्षापूर्वक जिनवाणी के पक्षों व मुनिधर्म की एतत्सम्बन्धी वास्तविकताओं को जाना। फिर दूसरी किस्त में मुनिधर्म की गौरव-गरिमा की शास्त्रोक्त जानकारियों के साथ-साथ मुनिधर्म में वक्तृत्व की गुणवत्ता का संक्षिप्त-परिचय प्राप्त किया। 
       इस किस्त में जिनधर्म के प्रभावक-मुनिवरों की वक्तृत्वकला की विशिष्ट-गरिमा का सप्रमाण मर्यादित-विवेचन आप सबके मननार्थ प्रस्तुत है।] 

     जिनधर्म के प्रभावक-वक्ताओं के कुछ अन्य-गुणों का परिचय देते हुये आगमवेत्ता आचार्य शिवार्य लिखते हैं--
*"णाणादेस-कुसलो, णाणादेस-गदाण सत्थाणं।*
*अहिलाव-अत्थकुसलो, होदि य देसप्पवेसेण।।"*
        --(भगवती आराधना, 151)
       अर्थात् जिनधर्म के प्रभावक-व्याख्यानकर्त्ता विभिन्नदेशों के विषय में बहुआयामी-जानकारियों के विशेषज्ञ होते हैं और विभिन्न-क्षेत्रों में प्रचलित शास्त्रों के भी जानकार होते हैं। इन कारणों से वे बोलने की भाषा-शैली एवं उनके वहाँ प्रचलित-अर्थों के भी मर्मज्ञ होते हैं, क्योंकि वे उन-उन देशों में प्रवेश करने के कारण यह सब जान जाते हैं। 
      इस गाथासूत्र में जो अभिप्राय कथित बातों का मर्म जानने के लिये हमें निर्ग्रन्थ-मुनिधर्म की कई विशेषताओं को भी समझना होगा। देखिये--
*1. पहली-बात तो इसमें यह स्पष्ट होती है कि निर्ग्रन्थ-मुनिराज अनियत-विहारी तो होते ही हैं, बल्कि अनवरत-विहारी भी होते हैं। वे बिना किसी लौकिक-आकर्षण या लौकिक-लक्ष्य के वे किसी भी जगह पर टिककर नहीं रहते हैं, ताकि उस स्थान से या वहाँ के निवासियों से रंचमात्र भी रागात्मकता निर्मित नहीं होने पाये। 
       यद्यपि उनकी अनवरत-विहारी-जीवनशैली का यही मुख्य-कारण होता है, तथापि इस अनवरत-विहार का एक सुफल यह भी होता है कि वे विभिन्न-अज्ञातक्षेत्रों में पहुँचते हैं। जन्मतः उन्हें जिस भाषा-शैली एवं विषयों की जानकारी होती है, उससे भिन्न अनेकों भाषाओं, उनके शब्दों एवं उच्चारण के विशिष्ट-अभिप्रायों के साथ-साथ उन क्षेत्रों के संस्कारों से सहज ही परिचित होते रहते हैं। चूँकि अन्य किसी तरह के सांसारिक-आकर्षण उन्हें नहीं होते हैं, इसकारण अन्य-विषयों में उनकी रुचि एवं प्रवृत्ति तो नहीं होती है ; परन्तु भाषा-शैली, विशिष्ट-शब्दावली, परिचित-शब्दों के उस क्षेत्र में प्रचलित विशिष्ट-अर्थों के साथ-साथ उन क्षेत्रों के मौलिक-संस्कारों एवं उनके कारणों से वे सहज ही परिचित होते रहते हैं और इसतरह वे सम्पूर्ण-भारतवर्ष के विविध ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, विचारों एवं परिस्थितियों के अनायास ही जानकार बनते रहते हैं। 
       यह प्रक्रिया उन्हें वास्तव में मुक्त-विश्वविद्यालय (ओपन यूनीवर्सिटी) का सबसे प्रभावी-अध्येता बना देती है। वे बिना किसी विशेष-प्रयास के मौनभाव से बहुत-कुछ सीखते रहते हैं। और यह अनवरत-प्रक्रिया उन्हें उन नियमित-प्रशिक्षुओं से अधिक सिखाती है, जो किसी एक परिसर में सीमित रहकर किताबी-ज्ञान प्राप्त करते हैं। 
       किन्तु यह भी सत्य है कि वे इतनी शिक्षा कुछ दिनों या महीनों में अर्जित नहीं कर लेते हैं। यह सुदीर्घ व अनवरत चलनेवाली प्रक्रिया है और इसमें कई वर्षों का समय लगता है।-- इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा ज्ञान न तो किसी शैक्षिक-परिसर की उपाधियों का मोहताज नहीं होता है और इसे वे बिना किसी परीक्षा या पाठ्यक्रम (सिलेबस) के वर्षों में अर्जित करते हैं। जब इतना सीखने-जानने में वर्षों का समय लगेगा, तो स्वतः स्पष्ट है कि उन्हें व्याख्यान देने की पात्रता अर्जित करने में भी वर्षों का समय लगेगा। किताबी-ज्ञान या लौकिक-उपाधियों (डिग्रियों) के आधार पर निर्ग्रन्थ-मुनिधर्म में वक्तृता की योग्यता/पात्रता प्रकट नहीं होती है। अतः आज जो लौकिक-उपाधियों या जानकारियों के आधार पर अपने को वक्ता मानने लगते हैं, वे इस गाथासूत्र का मर्म गम्भीरता से विचारें और आत्मानुशीलन करें कि क्या उनकी वक्तृता सुदीर्घ ज्ञानार्जन से उत्पन्न वाग्मिता पर आधारित है या फिर जिह्वा के स्फुरण के कारण होनेवाली वाचालता पर? 

      आचार्य गुणभद्र जिनधर्म का व्याख्यान करनेवाले मुनिवरों को और क्या-क्या विशेषतायें अपेक्षित मानीं गयीं हैं?-- इस विषय में स्पष्टीकरण करते हुये लिखते हैं--
*"प्राज्ञः प्राप्त-समस्त-शास्त्र-हृदयः,*
 *प्रव्यक्त-लोकस्थितिः।*
*प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान्,*
*प्रागेव दृष्टोत्तरः।।*
*प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनो-*
*हारी परा निन्दया।*
*ब्रूयाद् धर्मकथां गणी गुणनिधिः,*
प्रस्पष्ट-मिष्टाक्षरः।।"*
             --(आत्मानुशासन, 5)
       अर्थात् जिनधर्म का व्याख्यानकर्त्ता 
*1. प्राज्ञ* (विवेच्य-विषयों का अत्यन्त-विशेषज्ञ) हो, 
*2. विवक्षित-विषय के अलावा भी तत्संबंधी समस्त-शास्त्रों का मर्मज्ञ हो, साथ ही लोक की स्थिति जिसे भलीभाँति स्पष्ट हो* (अभिप्राय यह है कि किस देश-काल के श्रोताओं के बीच वह विषय किस स्तर पर विवेचित करना है?-- इसकी भलीभाँति जानकारी उसे हो),
*3. लौकिक-आकांक्षाओं से पूर्णतः रहित हो* (यानि मानबढ़ाई या वाहवाही के आकर्षण में अथवा अपने श्रोताओं की भीड़ बढ़ाने की लालसा में वह व्याख्यान नहीं दे, बल्कि सत्य की तथ्यात्मकरूप से प्रस्तुति करे), 
*4. प्रतिभाशाली* (ज्ञातव्य है कि जानकारी और प्रतिभा में जमीन-आसमान का अन्तर होता है) हो, इसके साथ ही उसे
*5. प्रशमभाव का धनी होना भी अनिवार्यतः अपेक्षित है*(यदि प्रशमभाव से व्याख्यान नहीं होगा, तो वक्तृत्व एवं विषयज्ञान का गौरव-दर्शन होने लगेगा), 
*6. जिसे श्रोताओं के द्वारा संभावित प्रश्नों/जिज्ञासाओं के समाधान पहले से ही पता हों* (इसके लिये व्यापक अध्ययन, मनन-चिंतन, मनोवैज्ञानिक-अधिगम एवं सहनशीलता के साथ गम्भीरता से सटीक-उत्तर देने की कला आनी अपरिहार्य है), साथ ही व्याख्यानकर्त्ता को 
*7. श्रोताओं के प्रश्नों के प्रति सहनशीलता भी अनिवार्य है*,(अन्यथा व्यग्रता तो बनेगी ही, साथ ही संसारी श्रोताओं का स्तर भिन्न होता है, वे कई बार विषय को सहीतरह से न समझ सकने के कारण या फिर गम्भीरता की कमी के कारण प्रश्न कर सकते हैं। उनके प्रश्न सहनशीलता की अपेक्षा रखते हैं। क्योंकि जिज्ञासा का स्तर भिन्न होता है और प्रश्न का स्तर भिन्न होता है),
 *8. प्रभुता-सम्पन्न हो* (छिछलापन कदापि न हो, न तो भाषा-शैली में, न हि विषयज्ञान में और न ही वक्तृता में), 
*9. अपने वचनों से श्रोताओं के मन को आकृष्ट एवं आनन्दित करने में सक्षम हो* (इसके लिये चुटकुलेबाजी या लच्छेदार भाषा-शैली अपेक्षित नहीं होती है, जैसा कि आजकल लोग प्रयुक्त करने लगे हैं ; बल्कि विषय की गहराई एवं भाषा की गाम्भीर्य स्वतः ही श्रोताओं के मन को अपना अनुगामी बना देता है), 
*10. दूसरों/विद्वेषियों के द्वारा की जानी वाली निन्दा/समीक्षा/कटाक्ष आदि से अत्यन्त दूर हो* (क्योंकि कुछ लोग तो मात्र क्रिटिसिज्म करने ही सभा में आते हैं, वे अपने आप को 'पंडित-पछाड़' मानते हैं, इसीलिये ऐसा व्यवहार सभा में करते हैं ; श्रेष्ठ-वक्ता उनसे पूर्णतः अप्रभावित रहते हुये शांतचित्त से अपना विषय प्रस्तुत करना चाहिये),
*11. उसे अधिकारी-विद्वान् के रूप में मात्र 'धर्मकथा' करनी चाहिये, किसी भी रूप में विकथा या अमर्यादित-वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिये* (आजकल यह प्रवृत्ति बहुतायत से देखने को मिलने लगी है, रागात्मक दृष्टान्तों के प्रयोग, साली-सलहज जैसे रिश्तों की चर्चा, परिग्रह के बहुमानपरक कथन आदि खुलकर किये जाने लगे हैं),
*12. गुणनिधि बनकर व्याख्यान करना चाहिये* (इससे आपकी वचनों में गम्भीरता एवं जिम्मेदारी की भावना स्वतः बढ़ती ही है, साथ ही अच्छी शब्दावली में अच्छे विचारों का संप्रेषण होता है), 
*13. अत्यन्त-स्पष्ट एवं मधुर-वचनों से व्याख्यान की प्रस्तुति होनी चाहिये* (स्पष्टता स्वर/उच्चारणगत तो अपेक्षित है ही, विषयगत स्पष्टता भी आवश्यक है, इसे स्फीत-वचनावली भी कहते हैं। साथ ही भाषागत-माधुर्य श्रोताओं को प्रशान्तचित्त होकर सुनने की मनःस्थिति निर्मित करता है)। 
      *-- इन तेरह (13) विशेषताओं का धनी ही सभा में जिनधर्म का व्याख्यान प्रस्तुत करे-- ऐसा स्पष्ट दिशानिर्देश आचार्य गुणभद्र जी ने इस पद्य में किया है।*

      आचार्य सोमसेन जिनवाणी के व्याख्यानकर्त्ता को निम्नलिखित-गुणों से सम्पन्न होना अनिवार्य मानते हैं--
*"वक्ता शास्त्रस्य धीमान्,*
 *विमल-शिवसुखार्थी चिन्तकः क्रोधमुक्तः।*
*निर्लोभः शुद्धवाग्मी,*
 *सकलजनहितः चिन्तकः क्रोधमुक्तः।*
*गर्वोन्मुक्तः यमाढ्यो,*
*भवभय-चकितः लौकिकाचार-युक्तः।।"*
        --(आचार्य सोमसेन,...... 1/20)
     अर्थात् जिनवाणी के वक्ता को
*1. धीमान् यानि धैर्यशाली-विद्वान् होना आवश्यक है* (क्योंकि आजकल थोड़ा-सा शास्त्रज्ञान होते ही बीच-बीच में बोलने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, सामनेवाले की बात पूरी हुये बिना ही बीच में बोलने लगना इसी मानसिकता को दर्शाता है।) 
*2. वह निर्मल-आचरण से युक्त होकर एकमात्र मोक्षसुख की ही अभिलाषा रखता हो* (क्योंकि यदि निर्दोष-आचरण नहीं होगा, तो परिग्रहों की आकांक्षा करेगा, तथा यदि मात्र बाह्याचरण शास्त्रानुकूल कर भी लिया, किन्तु उसकी साधना का उद्देश्य एकमात्र मोक्ष-प्राप्ति का उद्देश्य नहीं रहा; तो नियमतः उसका वह सदाचरण मोहवर्धक होगा और मानकषाय का पोषण करके कर्मबंध का हेतु बनेगा।) 
*3. चिन्तक यानि विचारवान् होना भी आवश्यक है* (क्योंकि यदि वह मात्र जिनवाणी की पंक्तियों को रटेगा और उनका आत्महित की दृष्टि से मर्म नहीं विचारेगा, तो वह न तो जिनवाणी पढ़कर भी आत्महित कर सकेगा और न ही श्रोताओं को जिनवाणी का मर्म समझा सकेगा।) 
*4. क्रोध से रहिक होना भी जिनवाणी के वक्ता को अनिवार्य है* (क्योंकि जिनवाणी का स्वाध्याय करते हुये भी जिसे श्रोताओं की किसी बात/व्यवहार पर क्रोध आता है, तो यह सुनिश्चित है कि वह अपने जिनवाणी के ज्ञान से एकमात्र अभिमान का ही पोषण कर रहा है और वही अभिमान उसे बड़प्पन की भावना से युक्त बनाकर क्रोधाविष्ट कर रहा है।) 
*5. उसे लोभरहित होना भी अनिवार्य है* (अर्थात् जिनवाणी के व्याख्यान करने के पीछे/बदले में उसे किसी भी तरह की लौकिक-स्वार्थ की भावना रंचमात्र भी नहीं होनी चाहिये। यह बात मुनिपदधारकों के लिये मान-प्रतिष्ठा के साधनों एवं जय-जयकार कराने की लालसा के रूप में प्रकट होती है, तो गृहस्थ-विद्वानों में दान-दक्षिणा के रूप में धनराशि या भेंट लेकर निर्माल्य लेने के रूप में आजकल देखी जा रही है। यदि जिनवाणी का वक्ता लोभी होगा, तो वह जिनवाणी के अनुसार नहीं बोलेगा, बल्कि उसके लोभ की पूर्ति जो करेगा, उसके अनुसार बोलेगा।) 
*6. उसका उच्चारण न केवल निर्दोष हो, बल्कि विद्वज्जनों की गरिमा के अनुरूप भी होना चाहिये* (यदि उच्चारण निर्दोष नहीं होगा, तो उस गलत-उच्चारण का कारण या तो प्रमाद होगा या अज्ञान होगा। जिनवाणी के व्याख्यानकर्त्ता को दोनों ही दोष अक्षम्य हैं और अशुद्ध-उच्चारण तो अक्षम्य है ही। उच्चारणगत निर्दोषता होने पर भी गरिमापूर्ण-गम्भीरता भी उसमें झलकनी ही चाहिये। अन्यथा अभिमान की प्रसक्ति होने से नहीं बचा जा सकता है।) 
*7. समस्त-जीवों के हित की दृष्टि से उसे व्याख्यान देना चाहिये*, (न कि मात्र श्रोताओं के हित की दृष्टि से। प्राणीमात्र के हित में उपदेश करनेवाला जिनवाणी का वक्ता होता है, मनुष्य-मात्र के हित का उपदेशक मानवतावादी होता है, मात्र जैनों के हित में बोलनेवाला समाज-सुधारक होता है और मात्र सामने बैठे श्रोताओं के हित में बोलनेवाला निहित-स्वार्थी होगा।) 
*8. चिंतनशील होना चाहिये।*
*9. क्रोधमुक्त होना चाहिये।*
*10. गर्व या अभिमान से रहित होना चाहिये।*
(इन तीनों गुणों का विवेचन ऊपर आ चुका है, अतः पुनः नहीं कर रहा हूँ।) 
*11. 'यम' अर्थात् जीवनभर के सदाचार के संकल्पों से युक्त हो (न कि समाजजनों को दिखाने के लिये सदाचारी बने), 
*12. संसार के भय से चकित हो* (यह बहुत व्यापक अर्थवाला प्रयोग है। यहाँ संसार-शरीर-भोगों से भय की बात जहाँ इनसे वैराग्य के लिये कही गयी है, वहीं 'चकित' पद का प्रयोग बहुत सोद्देशिक है। क्योंकि तत्त्वज्ञानी-मुनिराज इनसे भयभीत कैसे हो सकते हैं, कारण कि वे सप्तभयों से रहित होते हैं। वे तो इनसे नितान्त-असम्पृक्त रहने के कारण इनसे इतने अपरिचित हो चुके होते हैं कि यदि कोई संसारीजन इनमें फँसा हुआ अथवा इनसे भयभीत भी दिखता है, तो उन्हें उन संसारीजनों के ऐसे आचरण पर आश्चर्य होता है कि भला ये क्यों तो इन सांसारिक-प्रपंचों में फँसते है और फिर क्यों इनसे डरते हैं?-- ऐसी प्रतिक्रिया तभी हो सकती है कि जिनके चित्त में संसार और संसारीजन/सांसारिक-सामग्री नहीं चढ़ी हुई हो।) 
 *13. लौकिक-शिष्टाचार से युक्त हो* (यह भी बहुत विवेकपूर्ण बात है। आज कई लोग जिनधर्म की मर्यादा एवं धार्मिक शिष्टाचारों से रहित होकर आरम्भ-परिग्रहवर्धक कार्यों में स्वयं भी जुड़ते हैं और लोगों को प्रेरित करते हैं। इसतरह से वे वैराग्य-साधना की जगह राग के प्रपंच में फँसने लगते हैं। उनका शिष्टाचार तो यही बनता है कि वे श्रावकों व दर्शनार्थियों को 'सद्धर्मवृद्धि' के मंगलवचन बोलने के सिवाय अन्य कोई चर्चा तक न करें। लेकिन आजकल पाद-प्रक्षालन, दीपकों से अपनी आरती करवाना, जिनवाणी भेंट में लेना आदि अनेकों ऐसे कार्य ये अपनी देखरेख में निर्देश-पूर्वक कराने लगे हैं। जबकि जिनाम्नाय में मुनिधर्म में इनका कहीं कोई प्रावधान तक नहीं है।) 
       इन बातों का यथायोग्य परिपालन तो गृहस्थ-विद्वानों के लिये भी आवश्यक है, किन्तु निर्ग्रन्थ-मुद्रा धारण करनेवाले व्याख्यानकर्त्ताओं के लिये तो इनका परिपालन पूर्णतः अनिवार्य ही है। इनमें कोई भी छूट नहीं दी जा सकती है। अन्यथा मुनिधर्म एवं जिनवाणी-- दोनों की मर्यादा का उल्लंघन होगा ही। 
      (इसके बाद अगली-किस्त में मैं निर्ग्रन्थ-मुनिराजों के वचनामृतों की महिमा का परिचय सप्रमाण एवं सबहुमान प्रस्तुत करूँगा।) 
          (क्रमशः, आगे जारी) 
     संपर्क दूरभाष : 8750332266 
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