।। वाक्-संयम का महत्त्व।।* (मननीय आलेखमाला) {पाँचवीं-किस्त}
*।। वाक्-संयम का महत्त्व।।* (मननीय आलेखमाला) {पाँचवीं-किस्त} *प्रो. सुदीप कुमार जैन. नई दिल्ली* (अभी तक की चार-किस्तों में आपने मुनिधर्म में वाणी के प्रयोग-सम्बन्धी विभिन्न-पक्षों का विवेचन पढ़ा। इस अंतिम-किस्त में वाणी के संयमित-प्रयोग के विषय में कई अन्य मार्मिक विषय प्रस्तुत कर रहा हूँ।) स्व-पर-हितकारिणी, मंगल-स्वरूपा वाणी की संसार में दुर्लभता क्यों है?-- इस विषय में वैदिक-महर्षि वशिष्ठ लिखते हैं-- *"शतादेकतमस्यैव, सर्वोदार-चमत्कृतिः।* *ईप्सितार्थार्पणैकान्त-दक्षा भवति भारती।।"* --(योगवाशिष्ठ) *अर्थ :--* लोक में सैकड़ों वक्ताओं में से किसी एक की ही वाणी में वह गरिमा होती है, जो सभी को पसंद आये और अपने प्रतिपाद्य-विषय एवं प्रतिपादन-शैली-- दोनों से उन्हें चमत्कृत/विस्मित/आकर्षित कर सके। साथ ही अपने कथ्य को पूरीतरह से संप्रेषित करने के लिये सर्वथा-समर्थ हो। किसी (अभी नाम विस्मृत) मनीषी ने ऐसे विशिष्ट-वक्ता की गरिमा का यशोगान करते हुये लिखा है-- *"हेलया राजहंसेन यत्कृतं कल-कूजितम्।* *तादृग